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कर नहीं सकता मैं करतब क्या करूं

हो गई ताज़ा ग़ज़ल अब क्या करूं

कोई न पूछे तो लब ख़ामोश हैं

ओर जो कोई पूछ ले तब क्या करूं

तेरी ना एहली पे जब उठठे सवाल

मेरे कहने का है मतलब क्या करूं

फिर जिहालत का अंधेरा छा गया

तू ही बतलादे मिरे रब क्या करूं

अपनी मरज़ी से तो जी सकता नहीं

मुझको लिखकर दीजिये कब क्या करूं

आख़िरत में सुर्ख़रू करना मुझे

लेके इस दुनिया का मनसब क्या करू

.

समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

Views: 1322

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Comment by Samar kabeer on January 22, 2015 at 5:48pm
माफी चाहता हूँ दिनेश कुमार जी पहले मिसरे की तक़तीअ भी वही है" फ़ाईलातुन फ़ाईलातुन फ़ाईलुन",इस सम्बन्ध में मैने जो कमेन्ट मिथिलेश जी को किया है और मिथिलेश जी ने उसके जवाब में जो कमेंट मुझे किया है उसे पढने का कष्ट करें शायद आपकी सन्तुष्टि हो जाए?
Comment by दिनेश कुमार on January 22, 2015 at 2:41pm
लेकिन समर साहब, मैंने तो दूसरे शे'र के पहले मिसरे के बारे में पूछा था
Comment by Samar kabeer on January 22, 2015 at 2:33pm
प्रतिभा त्रिपाठी जी बहुत बहुत शुक्रिया
Comment by Samar kabeer on January 22, 2015 at 2:30pm
सोमेश कुमार जी, शुक्रिया
Comment by Samar kabeer on January 22, 2015 at 2:27pm
भाई दिनेश कुमार जी,आदाब ग़ज़ल़ पसंद करने के लिए शुक्रिया,रही बात ग़ज़ल के दूसरे नम्बर के शेर की तो शेर का दूसरा मिसरा जिस पर आपको एतराज़ है में दूसरे अन्दाज़ में भी कह सकता था ,इस मिसरे को "उर जो कोई पूछ ले तब क्या करू"इस तरह पढने से मिसरा ,फ़ाईलातुन फ़ाईलातुन फ़ाईलुन की तक़तीअ पर पूरा उतरेगा,शुक्रिया
Comment by somesh kumar on January 22, 2015 at 11:21am

सुंदर प्रस्तुति 

Comment by दिनेश कुमार on January 22, 2015 at 7:46am
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है साहब। वाह ...!! क्यों कि मुझे बह्र,वज्न आदि की बहुत ही सीमित जानकारी है,इसलिए दूसरे शे'र के पहले मिसरे की तक्तिअ नहीं कर पाया। अगर समर साहब आप थोड़ा हिन्ट दें तो मुझे फायदा होगा।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 22, 2015 at 1:26am

आदरणीय  समर कबीर जी क्षमा कीजियेगा मैं उर्दू का तालिबईल्म नहीं हूँ और केवल देवनागिरी में लिखता हूँ इसलिए ऐसी गुस्ताखी कर बैठा. \कोई ना पूछे तो लब ख़ामोश हें\ और \तेरी ना एहली पे जब उठठे सवाल\ में आपका ना का प्रयोग सही है तथा  \ओर जो कोई पूछ ले तब क्या करूं\ मिसरे में जो भी भर्ती का नहीं है कोई को 1 +1 =2 मान लिया. अपनी सलाह वापस लेता हूँ यदि आपको प्रतिक्रिया पसंद नहीं आई हो तो आप डिलीट भी कर सकते है. एक बार फिर गुस्ताखी की मुआफी चाहता हूँ. बहुत अच्छी ग़ज़ल है. मानता हूँ. नौसिखिया हूँ और आपकी किसी ग़ज़ल से पहली बार गुज़रा हूँ इसलिए हिमाकत हो गई. अब आप मंच पर उपलब्ध है तो बहुत कुछ सीखने मिलेगा. सादर.

Comment by Samar kabeer on January 21, 2015 at 10:57pm
बिरादरम मिथिलेश वामन्कर साहिब,आदाब
ये जानकर बड़ी मसर्रत हुई कि आपने आेपन बुक आॉन्लाइन पर मेरी ग़ज़ल को सराहा,शुक्रिया,
आपकी बात पड़कर मुझे मेरी पुरानी ग़ज़ल का एक शेर याद आगया,
"ख़ुदा बख़्शे बहुत अच्छी ग़ज़ल थी
क़लम आराईयों ने मार डाला"
मेरे भाई पूरी ग़ज़ल मुरव्वेजा वज़्न और बह्र पर पूरी तरह खरी उतरती है,यह बात अलग कि में उर्दू का तालिबईल्म हूँ और देवनागिरी लिखने में मुझे परेशानी का सामना करना पड़ता है|
Comment by Hari Prakash Dubey on January 21, 2015 at 8:16pm

आदरणीय समर कबीर जी,सुन्दर प्रस्तुति ... , बाकी आदरणीय मिथिलेश जी की बात पर गौर करीयेगा....

अपनी मरज़ी से तो जी सकता नहीं

मुझको लिखकर दीजिये कब क्या करूं.....बधाई !

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