घुप अँधेरे में
रात के सन्नाटे में
मै अकेला बढ़ गया
गंगा के तीर
नदी की कल-कल से
बाते करता
पूरब से आता समीर
न धूल न गर्द
वात का आघात बर्फ सा सर्द
मैंने मन से पूछा –
किस प्रेरणा से तू यहाँ आया ?
क्या किसी अज्ञात संकेत ने बुलाया
अँधेरा इतना कि नाव तक न दिखती
कोई करुणा उस वात में विलखती
मैं लौटने को था
वहां क्या करता
पवन निर्द्वंद
एक उच्छ्वास सा भरता
तभी मै चौंका
मुझे सुनायी दिया
किसी नारी के रोने का स्वर
दूर-दूर तक सन्नाटा नहीं कोई घर
तरंग-दैर्घ्य कम था
या मेरा भ्रम था
फिर भी मैंने उसे खोजा
गंगा के कगारों में
झाड़ियों में, घाटों में
ढूंढता-भटकता रहा
गिरता-लुढ़कता रहा
माथे पर चोट आयी
लहूलुहान पैर हुए
उन्मत्त सा दौड़ा मैं
संशय में भरा हुआ
कौन है यह स्त्री
जो मौत से भी
भयानक
सन्नाटे में
बेखाफ़ रोती है
और क्या गम है उसे ?
मैंने हर सिम्त उसे ढूँढा
पागलो की तरह भागा
हर उस दिशा की ओर
जिधर से रह-रह कर आती थी
वह आवाज, हिचकियाँ,
अवरुद्ध कंठ
पर मुझे कोई न मिला
अचानक प्रकट हुआ –एक मल्लाह
नाव लेकर उस पार से
आया था अकेला
अँधेरे में दिखता था भीमकाय भूत
काला,कलुषित कुधर जीमूत
मैने पूंछा-‘ कौन हो तुम?’
उसने मुझे सर से पांव तक घूरा
बोला- ‘मै बैताल हूँ
पर तुम कौन ?’
‘मै इंसान -------‘
बेताल हंसा – ‘यहाँ मध्य रात में
इंसा का क्या काम ?’
मैंने कहा –‘यहाँ पर रोती है
कोई भग्न नारी
जिसकी आवाज पर भटकता हूँ मै’
बेताल हंसा – ‘यहाँ रोते है प्रेत और पिशाच
चुड़ैले करती है वीभत्स नाच
तुम्हे सुनायी देता है रोने का स्वर
बड़े ही भोले हो मानव प्रवर
मै मल्लाह हूँ, यहाँ से वाकिफ
यहाँ अर्द्ध रात्रि में नारी कब आयी ?
मुझे तो नहीं देता कुछ भी सुनायी
मेरी मानो बाबू जी वापस लौट जाओ
फिर मत कभी आना रात में अकेले
कौन जाने कब टूटे गंगा का कगार’
उलटे पांव भागा मै
सोते से जागा मैं
कुछ दूर चला फिर वही ध्वनि आयी
रोती हुयी स्त्री का स्वर दिया सुनायी
मै अवसन्न !
सच किसी परदे में है प्रछन्न
या फिर मै भ्रम में खो गया हूँ
ओ माय गॉड , साइको हो गया हूँ
जी नहीं माना
अगली रात भी गया मै
साथ में ‘जर्मन शेफर्ड’ ले गया मै
उसने भी सुना वह रुदन वह पुकार
तट पर तलाश में दौड़ा बार-बार
हर बार आता हांफता हुआ वह
निराश असफल कांपता हुआ वह
मै जंजीर पकडे संग-संग चला
पर रोने वाली का पता न चला
मैंने खोज बंद कर दी
जिज्ञासा की जलती लौ
धीरे-धीरे मंद कर दी
पढ़ रहा था पन्त को
एक रविवार
‘चांदनी रात में नौका-विहार’
याद आया मुझको हठात वह दृश्य
गंगा-तीर रोती थी नारी अदृश्य
सोचा हतभाग्या का क्या हुआ होगा
उसने भी शायद निज कृत्य ही भोगा
चांदनी रात थी
मथ रहा था मन
मै शायद फिर अपने वश में न था
हृदय में तारी थी नारी की व्यथा
चल पड़ा फिर मै गंगा की ओर
वात का, प्रवाह का, हल्का सा शोर
चांदी की सीप में मोती सी गंगा
मेरे पास एक अवधूत आया नंगा
बोला –‘उद्विग्न हो, शांति चाहते हो
या फिर मेटना कोई भ्रान्ति चाहते हो ?
रात में ऐसे यहाँ कोई आता नहीं
आता भी है तो शांति पाता नहीं
तुम्हे क्या कष्ट है ?’
मैंने कहा- ‘यहाँ कोई आत्मा रोती है
मैने खुद सुना है कुछ दिवस पहले !’
वह बोला- ‘यहाँ नित्य दृश्य बदलते है
भैरव के कार्य कलाप यहाँ चलते है
आज क्या कोई रुदन दिया सुनायी ?’
‘नहीं देव, कोई आवाज नहीं आयी ‘
अवधूत हंसा, बोला- ‘अभी लौट जाओ
फिर कभी यहाँ मध्य रात में न आओ
हम यहाँ रात में मसान साधते है
उल्लू के अंग से शवांश रांधते है I’
ताजे-ताजे शव की तलाश यहाँ करते है
कोइ मिल जाए उसे लाश् यहाँ करते हैं '
मै फिर भागा
मानो सोते से जागा
आज तो सचमुच आवाज नही आयी
कोई भी नारी स्वर नहीं दिया सुनायी
मै ही शायद निज भ्रम का मारा था
मनोविकृति, संभ्रम का खेल यह सारा था
और यह अवधूत --- मैंने पलट कर देखा
नहीं दिखी कोई मुझे जीवन की रेखा
मै जैसे फिर इक बारगी छला गया
यह अवधूत किस त्वरा से चला गया
कितना भयानक उद्योग यह करता है
शव के मांस का भोग यह करता है
मेरे मुख पर विस्मय की घटा छाई
फिर से मुझे वही, स्वर दिया सुनायी
सुबकियाँ, सिसकियां ,हिचकी, आर्त्त-रोदन
तब से मै नियमित हर रोज इधर आता हूँ
और उस नारी को रोते हुए पाता हूँ
एक दिन प्रभु से वरदान था माँगा
या मेरे क्रम का सौभाग्य यहाँ जागा
उस दिन मैंने वह
विकट कराह सुनी
शब्दों में आती हुयी दुर्वह आह सुनी-
‘हाय भगीरथ ! क्या इसीलिए लाये थे ?’
मै अवाक, स्तब्ध, अवसन्न !
बेसुध ,घायल सर्वथा विपन्न
तो क्या वह गंगा थी या मेरा भ्रम
मेरा मनोविकार ,मेरी व्यथा, संभ्रम
पर प्रिय प्रमाता ! तुम भी एक बार
मेरी इन बातो पर करटे हुए ऐतबार
जाना उस तट पर रात में, अँधेरे में
निविड़ में बीहड़ में तम-श्याम घेरे में
शब्द तुम्हे न मिले पर मेरा विश्वास है
मेरी अन्तश्चेतना का अवलंब खास है
तुम भी सुनोगे वहां हवा की मर्मर
और शायद विकल नारी आत्मा के स्वर !
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
अनुज
फैंटेसी में कथा और काव्य दोनों का आनंद संभव है i आपकी संस्तुति से मन आश्वस्त हुआ i
सोमेश जी
शायद आपने पहली बार कोई फैंटेसी पढी है i कभी समय मिले तो मुक्तिबोध कृत 'अँधेरे म' और 'ब्रह्म राक्षस' पढ़ना i तब आप विस्मित रह जांयेंगे i प्रिय i
महनीया
आपकी संस्तुति से मन आश्वस्त हुआ i सादर i
प्रतिभा जी
आपकी स्नेहिल टीप से मन आनंन्दित है i सादर i
आदरणीय वामनकर जी
किसी रचना पर इतनी विशद टिप्पणी ओ बी ओ के इतिहास में शायद पहली बार है i यह आपकी पाठक धर्मिता का अपने आप में एक प्रमाण है i मैं अनुगृहीत हूँ कि आपने इतना समय और इतनी ऊर्जा इस रचना को दी i आप एक अच्छे समीक्षक भी है इसका संज्ञान तो हुआ हे पर आपने रचना के जिन बिन्दुओ का स्पर्श किया उससे आपकी मेधा का संकेत मिलता है i मैं शब्दों में आपके इस स्नेह का वर्णन नहीं कर सकता , आभार तो बहुत छोटी बात होगी i आप की कलम सदा उर्वर् रहे i मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है i सादर i
आ० हरि प्रकाश जी
जिस आत्मीयता से आपने रचना को स्वीकार किया वह मेरा सौभाग्य है i
विजय सर
आपका हार्दिक आभार i
आदरणीय बड़े भाई , बहुत सुन्दर ! कविता के साथ कहानी का भी रोमांच और रहस्य साथ साथ है । गंगा माँ की व्यथा का बहुत करुण वर्णन है ! आपको हार्दिक बधाइयाँ , आदरणीय ।
मैं अपने फेसबुक पेज़ पर इस रचना को शेयर करने को लालयित हो चुका हूँ |प्रणाम गुरुदेव
कविता एक रोमांचक चलचित्र की भांति विभिन्न आयामों से होती हुई एक सार्थक धरातल पर अपना प्रभाव छोड़ने में सक्षम है गंगा की वेदना को आपने अनूठे अंदाज में प्रस्तुति किया है पढ़कर बहुत अच्छा लगा,इस सार्थक प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई आ० डॉ.गोपाल नारायण जी |
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