रातों के बेच कर ,दिन की रोशनी मैं इज्जत से जिन मज़बूरी हैं मेरी
आत्मा को बेच कर ,चहरे पर ये रौशनी झूठी है मेरी
जिनके आगे रातें लूटी हैं लुटाया है मैंने ,
उन्हें दिन में इज्जत देने वालों की पहली कतार में पाया हैं मैने
रातों ......
वैसे कहने को तो सभ कुछ पाया है मैने ,
पर हकीकत ये है ,सब कुछ लुटाया हैं मैंने
मेरे आंशुओं की नीलामी लगाई हैं उन्होंने
मेरे मजबूरियों की पूरी कीमत पाई है उन्होंने
रातों....
मुझे चीर कर मेरे लहू से क्यारी सजाई है उन्होंने
मुझे सजाकर अपने आराम की चीज बनाई है उन्होंने
इन्हें बेनकाब कर दूँ ,कई बार सोचा है मैंने
लेकिन हर दरवाजे ,इन्हें ही चौकीदार पाया है मैंने
रातों ......
खुदकशी ही कर लूँ कई बार सोचा है मैने ,
लेकिन अपनी कतार में न जाने कितनो को पाया है मैने
रातों ......
श्याम मठपाल
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
ठीक है आपके चैट बॉक्स में आ रहा हूँ !
Aadarniya dubey Ji,
Aapko rachna pasand aai iske liye bahut dhanyabad. Aapke ye shabda mera honsla badhayenge.
Main hindi main comment karna chahata hoon. Kripaya madad karain.
Mere photo mere blog ke saath nahi aa raha hai. Please quide.
आदरणीय श्याम मठपाल जी , सुन्दर रचना ये पंक्तियाँ विशेष प्रभावित कर रही हैं ...
जिनके आगे रातें लूटी हैं लुटाया है मैंने ,
उन्हें दिन में इज्जत देने वालों की पहली कतार में पाया हैं मैने..........हार्दिक बधाई ! सादर
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