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ग़ज़ल -- राम नहीं रावण देखा है

राम नहीं रावण देखा है
कलियुग का सज्जन देखा है

माली के ही हाथों उजड़ा
ऐसा भी उपवन देखा है.

काँप गया हूँ भीतर तक मैं
जबसे ये दर्पण देखा है

ढूँढ़ रही है बूढ़ी आँखें
क्या तुमने बचपन देखा है ?

हमने घर के बँटवारे में
रोता ये आँगन देखा है.

दिल का मोर खुशी को तरसे
इसने कब सावन देखा है

दूर कहीं अब धरती के संग
हम ने नील गगन देखा है

धनवानों का अक्सर मैंने
निर्धन अन्तर्मन देखा है

-- दिनेश कुमार १५/०२/२०१५

( मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 18, 2015 at 12:01pm

आ० भाई  दिनेश  जी सुन्दर प्रस्तुति ,हार्दिक बधाई l

Comment by Pari M Shlok on February 18, 2015 at 10:15am
सभी आशार बेहतरीन लगे

दिल का मोर खुशी को तरसे
इसने कब सावन देखा है

हमने घर के बँटवारे में
रोता ये आँगन देखा है....दिल को छू गए ये अशआर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 17, 2015 at 8:19pm

आदरणीय दिनेश भाई जी , बहुत बढिया गज़ल हुई है , सभी अश आर अच्छे लगे । आपको तहे दिल से मुबारकबाद ॥ आदरणीय सौरभ भाई जी के कहे का ध्यान ज़रूर रखें ॥

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 17, 2015 at 7:02pm

अच्छा प्रयास है दिनेश जी। दाद कुबूल कीजिए

Comment by दिनेश कुमार on February 17, 2015 at 12:49pm
भाई मिथिलेश जी, बहुत बहुत शुक्रिया। इस बह्र पर पहली कोशिश थी।
Comment by दिनेश कुमार on February 17, 2015 at 12:44pm
आदरणीया Mohinichordia ji , बहुत शुक्रिया। आभार व्यक्त करता हूँ कि आप ने मेरी रचना को सराहा।
Comment by दिनेश कुमार on February 17, 2015 at 12:41pm
हरिप्रकाश भाई जी, बहुत शुक्रिया
Comment by दिनेश कुमार on February 17, 2015 at 12:34pm
आदरणीय सौरभ सर जी, हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया। मुझे इस विषय में बहुत सीमित जानकारी है। आप ठीक ही कहते हैं कि काफिया स्तर पर यह गजल खारिज हो सकती है। मेरे पास check करने का कोई साधन नहीं है आदरणीय। अगर आप मार्गदर्शन करें तो मेहरबानी होगी।
Comment by दिनेश कुमार on February 17, 2015 at 12:25pm
सर्वेश कुमार जी, बहुत शुक्रिया। आभार
Comment by दिनेश कुमार on February 17, 2015 at 12:20pm
शुक्रिया आदरणीय विजय शंकर जी। हौसला अफजाई के लिए आभार।

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