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अच्छे अश’आर हुए हैं दिनेश जी, दाद कुबूल करें
आ० दिनेश जी
अत्यधिक मार्मिक शेर i बधाई हो i
झूठ को झूठ अब भी कहता मैं
मुझ में बाक़ी है बचपना शायद...क्या बात है
शेख ये सोच कर नमाज पढ़े
वक़्त-ए-आखिर हो कुछ नफा शायद...आखिरी समय ही ये चिंता होती है बहुत बढ़िया ..इस उत्कृष्ट ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय दिनेश जी
जिन्दगी उलझनों का नाम हुई
ले रहा इम्तिहाँ ख़ुदा शायद
बिन कहे वो मिरी करे इमदाद
ज़ेह्न में उसके कुछ पका शायद
हर घड़ी वो जो मुस्कुराता है.
जख़्म उसका कोई हरा शायद
झूठ को झूठ अब भी कहता मैं
मुझ में बाक़ी है बचपना शायद
रात भर करवटें बदलता हूँ
बोझ पापों का बढ़ गया शायद
आदरणीय दिनेश जी मतला ता मक्ता शानदार ग़ज़ल हुई है |आपका दिनेश और मेरा 'खुरशीद' तखल्लुस हमें मक्ते पर लाकर हमख्याल कर देता है |बहुत बहुत बधाई |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर अभिनन्दन |
रात भर करवटें बदलता हूँ
बोझ पापों का बढ़ गया शायद......wah wah sher
आदरणीय दिनेश कुमार जी सुन्दर ग़ज़ल , हार्दिक बधाई !
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