मन का मीत मन को छल गया
आँख का पानी मचल गया
वो मेहन्दी हाथ की मेरे चिटक के रह गयी
वो मछली नेह की मेरे , तड़फ़ के रह गयी
देह का सागर जल गया
पराई छाँव थी , आख़िर मैं रोकता कब तक
पराया ख्वाब था , आख़िर मैं सोचता कब तक
समय के हाथ से सावन फिसल गया
लिपट के रोटी रही , मन से मेरे प्रीत मेरी
वो अन्छुयी ही रही , मेरे स्वप्न की कोरी देहरी
आस का संबल गल गया
मौलिक अप्रकाशित
अजय कुमार शर्मा
Comment
आदरणीय अजय भाई जी की रचनाएँ भाव स्तर पर बहुत उम्दा और चकित करने वाली होती है. इतनी सरस रचनाये आती है, कि पढ़कर हमेशा मुग्ध हो जाता हूँ, इसलिए सोचता हूँ शिल्प स्तर पर भी कसावट आ जाए तो मंच की बेहतरीन रचनाओं में से एक होगी. आशा है अजय भाई जी निवेदन में इंगित संकेतों और उनके निहितार्थ पर सकारत्मक परिणाम देंगे. सादर
जैसा की मिथिलेश भाई ने कहा ,रचना को कुछ और गढ़ा जा सकता है |भावनाएँ शब्दों पर बलवती हो रही हैं |शब्दों के क्रम में भी हेर-फेर की जरूरत महसूस हो रही है |
typing mistakes ke liye sabhi gurjano se kshama chahta hoo.......
bade bhai .....mithilesh ji .....bahut bahut shukriya
आदरणीय अजय भाई , सुन्दर भाव पूर्ण रहना के लिये आपको बधाइयाँ ॥
आदरणीय अजय जी इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करे.. रचना पर कुछ बाते साझा करना चाहता हूँ. निवेदित है -
मन का मीत मन को छल गया
आँख का पानी मचल गया
वो मेहन्दी हाथ की मेरे चिटक के रह गयी ........... वो मेंहदी हाथ की मेरे छिटक के रह गई
वो मछली नेह की मेरे , तड़फ़ के रह गयी .......... वो मछली नेह की मेरे तड़प के रह गई
देह का सागर जल गया
पराई छाँव थी , आख़िर मैं रोकता कब तक
पराया ख्वाब था , आख़िर मैं सोचता कब तक
समय के हाथ से सावन फिसल गया.................. समय की आँख से सावन फिसल गया
लिपट के रोटी रही , मन से मेरे प्रीत मेरी ............ लिपट के रोती रही, मन से कभी प्रीत मेरी
वो अन्छुयी ही रही , मेरे स्वप्न की कोरी देहरी ..... वो अनछुई ही रही, कोरी, स्वप्न की देहरी
आस का संबल गल गया................................... हृदय की आस का संबल पिघल गया
मन का मीत मन को छल गया
आँख का पानी मचल गया.......
आदरणीय अजय जी एक एक शब्द दिल को छू जाता है, हार्दिक बधाई !
अजय जी
लिपट के रोटी रही --- शायेद आपका आशय है---' लिपट के रोती रही '
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