दूर मुझसे कितने दिन रह पायोगे , सोच लो , फिर रहो
दर्द-ए-दिल है ये , सह पायोगे , सोच लो, फिर सहो
लौट के खुद पे आती हैं , बद-दुयाएँ , सुना है ?
सहन ये सब कर पायोगे , सोच लो , फिर कहो
क्या नहीं उसने दिया , पर क्या दिया तुमने उसे ?
क्या कभी उठ पायोगे इतना , सोच लो , फिर गिरो
इतना भी आसां नहीं है, रास्ता ख़ुद्दारियों का
सूरज की जलन सह पायोगे , सोच लो , फिर बढ़ो
घर से बे-घर होके भी उसने बसाई दिल की दुनिया
आँसुयों सा ये सफ़र कर पायोगे , सोच लो , फिर चलो
उठने लगी है हर तरफ आवाज़ तेरी ख़िलाफ , लेकिन ?
क्या यूँ ही डर के कहीं छुप जाओगे , सोच लो , फिर डरो
ज़िंदगी गम का समंदर है इक , ये ख़याल रहे
पार कर पायोगे इसको "अजय", सोच लो , फिर बहो
अजय कुमार शर्मा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
giriraj sir .......dhanya hua ...yadi mistakes ki taraf ....kuch ingit kar dete to aur bhi ....khush ho jata ....nevertheless ....bahut bahut shukriya
आदरणीय अजय भाई , खुद की वस्तविकता क्या है ये जानने के लिये आपकी रचना प्रेरित कर रही है । सुन्दर रचना के लिये आपको बधाइयाँ ।
आदरणीय अजय जी , सुन्दर रचना , हार्दिक बधाई प्रेषित !
इस रचना के लिए हार्दिक बधायी सादर
इस रचना प्रयास हेतु बधाई किन्तु टंकण त्रुटि देख लें.
अजय जी
टंकण की अनेक अशुद्धियों से एक अच्छी गजल का मजा कुछ कम हुआ है i आगे इसका ध्यान अवश्य रखे i सादर i
वाह वाह ..बहुत बढ़िया
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