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ये कैसी महफिल में मुझको ले लाया
हर कोई लगता है गुमसुम, थर्राया
सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं
गाँवों की गलियों को सब ने फुसलाया
साहिल साहिल बात चली है लहरों में
तूफ़ाँ ने जब तोड़ी कश्ती, इतराया
क्या जज़्बा हाथों से बहते रहता है ?
धोते ही हाथों को पानी गँदलाया
दोनों कूदे संग प्रेम की खाई में
प्रश्न कहाँ तब, किसने किसको बहकाया
बाग़ों, फूलों, पगडंडी की बातें कर
धुयें उगलती चिमनी से मन उकताया
झूठ बहुत वाचाल मिला जो झूठों में
सच के आगे वही झूठ था हकलाया
धीरे धीरे यादें सब मिट जायेंगी
जैसे वक़्त हुआ तो माजी धुँधलाया
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गुमनाम भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका दिली शुक्रिया ।
सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं
गाँवों की गलियों को सब ने फुसलाया
साहिल साहिल बात चली है लहरों में
तूफ़ाँ ने जब तोड़ी कश्ती, इतराया
बहुत ही बढ़िया , हार्दिक बधाई सादर !
आदरणीय सौरभ भाई , आपके कमाल ने मेरे अन्दर कमाल का आनन्द भर दिया !! आपका कहना सही है , मै उस मिसरे को वैसे ही सुधार लूंगा ॥ आभार आपका ॥
आदरणीय हरि भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय खुर्शीद भाई , आपकी सराहना ने मेरा गज़ल कहना सार्थक कर दिया ॥ आपका दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय मिथिलेश भाई , सराहना और सलाह के लिये आपका हार्दिक आभार । मै कुछ परिवर्तन ज़रूर करूँगा ॥
आदरणीय महर्षि भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ॥
कमाल ! इससे कमतर कुछ नहीं. सान्द्र सोच शब्द पागयी है, आदरणीय.
सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं
गाँवों की गलियों को सब ने फुसलाया
व्याकरण सम्मत होगा -
सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं
गाँवों की गलियों को सब ने फुसलाये
उला को यों किया जाय -
हर रस्ता इन शहरों का बातूनी है
तो आपका सानी-मिसरा सधा दिखेगा. ऐसा मुझे लगता है.
दिल से दाद कुबूल कीजिये, भाईजी.
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर, शानदार ग़ज़ल है
ये कैसी महफिल में मुझको ले लाया
हर कोई लगता है गुमसुम, थर्राया....सुन्दर
सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं
गाँवों की गलियों को सब ने फुसलाया...बहुत ही बढ़िया , हार्दिक बधाई सादर !
सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं
गाँवों की गलियों को सब ने फुसलाया
साहिल साहिल बात चली है लहरों में
तूफ़ाँ ने जब तोड़ी कश्ती, इतराया
क्या जज़्बा हाथों से बहते रहता है ?
धोते ही हाथों को पानी गँदलाया
दोनों कूदे संग प्रेम की खाई में
प्रश्न कहाँ तब, किसने किसको बहकाया
बाग़ों, फूलों, पगडंडी की बातें कर
धुयें उगलती चिमनी से मन उकताया
आदरणीय गिरिराज सर ,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है |सभी अशआर लासानी हैं |शेरियत और तय्ख्खुल भी पूरे शबाब पर है |बागों ,फूलों पगडण्डी...........वाला शेर दिल को छू गया ,यह मेरे मिज़ाज का शेर है ,आपकी कलम से इस ख्याल को अच्छा निखार मिल गया है |
सादर अभिनन्दन |
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