“बेटा!.. तुझे याद है न.. जब तू स्कूल में प्रथम श्रेणी में आया था , मुझे कितनी ख़ुशी हुई थी . सभी लोग यही कह रहे थे कि मेरा बेटा है"
“ हाँ!..पर रात-दिन पढाई मैंने की थी, आपने जो किया था वो आपका फर्ज था "
“ हाँ! बेटा यही समझ ले, बस मुझे इसी घर में रहने दे. अब गली-गली दरबदर फिरूंगा, तो लोग यही कहेंगे की तेरा बाप हूँ...”
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय मिथिलेश जी, आपके विस्तृत प्रोत्साहन का ह्रदय से आभार. यह लेखनी का प्रभाव ओ.बी.ओ . मंच की ही देन है. बतौर पाठक मंच में शामिल होने के पश्चात, जो कुछ पाया यहीं से पाया है. आदरणीय गुरुजनों के सानिध्य व् स्नेहिल मार्गदर्शन ने ही लेखन को प्रभावशील बनाया है.
सादर!
आदरणीय महर्षि जी, आपके प्रोत्साहन हेतु आपका आभारी हूँ
सादर!
आदरणीया राजेश दीदी, लघुकथा पर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया हमेशा रचना को सार्थकता व् लेखनकर्म को मनोबल देती है. आपका ह्रदय से आभारी हूँ
सादर!
आदरणीया अर्चना जी, आपकी उपस्थिति व् प्रोत्साहन हेतु आपका बहुत-बहुत आभार
सादर!
आदरणीय विनय जी, आप जैसे लघुकथाकार से प्रोत्साहन पाना, मनोबल बढाता है. आपका आभारी हूँ
सादर!
आदरणीय श्याम नारायण जी, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका बहुत-बहुत आभार.
सादर!
आदरणीय डा.गोपाल जी, आपके स्नेहिल आशीर्वाद के लिए ह्रदय से आभारी हूँ
सादर!
आदरणीय डा.विजय जी, आपकी उपस्थिति व् आशीर्वाद से रचना को सार्थकता मिलती है. आपका ह्रदय से आभारी हूँ
सादर!
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया सर .बहुत ही सशक्त रचना है "अब गली-गली दरबदर फिरूंगा, तो लोग यही कहेंगे की तेरा बाप हूँ" ये एक पंक्ति ही समस्त कथा बयान कर रही है की संवेदनायें मर चुकी हैं , सुन्दर ,सफल रचना पर बधाई आपको ! सादर
लोग यही कह रहे थे कि मेरा बेटा है"
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लोग यही कहेंगे की तेरा बाप हूँ...”
आदरणीय जितेंदर जी , विसंगति को क्या ख़ूब शब्द दिये है |पिता की कुंठा ,पुत्र की अवज्ञा ,समाज की असंवेदनशीलता सब कुछ उजागर कर दिया आपने |हार्दिक बधाई |सादर अभिनन्दन |
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