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ग़ज़ल - पाँव में जंजीर है.... (मिथिलेश वामनकर)

2212 / 2212 / 2212 / 2212----- (इस्लाही ग़ज़ल)

 

दिल खोल के हँस ले कभी,  ऐसी कहाँ तस्वीर है

यारो चमन की आजकल इतनी कहाँ तकदीर है

 

झूठे निवालों में यहाँ,  कटती सभी की जिंदगी

इस मुल्क के हालात की बोलो अगर तद्बीर है

 

अक्सर सियासत में यही जुमले चले है आजकल

"ये तो मसाइल है मगर,  फिर भी कहाँ गंभीर है"

 

भाटा हुआ जो रात को, फिर ज्वार कब सुबहा हुआ

सीने में अब अपने समंदर सी कहाँ तासीर है

 

वैसे पलट के बोल दे, हर बात जो दिल को लगे   

चुपचाप सुनते है फ़क़त, ये आपकी तौकीर है

 

हमसे कहा था आपने, ये आपकी सरकार है

ये है हकीक़त या किसी के ख्वाब की ताबीर है

 

बारूद है बन्दूक है या  मजहबी फरमान है

ये मौत का सामान भी तो दमबदम तामीर है

 

अब तो मुकम्मल ज़िन्दगी, हर एक को मिलती नहीं

जिस हाथ में है रोटियाँ, उस पाँव में जंजीर है

 

लो, क़त्ल भी मेरा हुआ, कातिल मुझे माना गया

तफ्तीश भी मेरी हुई, मुझको मिली ताज़ीर है

 

कैसे ग़ज़ल अपनी कहूँ, इसमें कई परछाइयाँ

है दाग़ भी, ग़ालिब कहीं या तो कहीं पे मीर है

 

ये है यकीं ‘मिथिलेश’ वो, अब क़त्ल करके जाएंगे

ये दोसती की आड़ है, वो हाथ में शमशीर है

 

-------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
-------------------------------------------------------

 

बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम

अर्कान –मुस्त्फ्यलुन / मुस्त्फ्यलुन / मुस्त्फ्यलुन / मुस्त्फ्यलुन

वज़्न –   2212 / 2212 / 2212 / 2212

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Comment

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Comment by maharshi tripathi on March 9, 2015 at 6:08pm

आ.मिथिलेश जी,,,,बहुत सुन्दर रचना पर हार्दिक बधाई,,,,,हर शेर लाजवाब है | 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 9, 2015 at 9:48am
आदरणीय गिरिराज सर भावातिरेक में भूल हुई क्षमा। सर तो ठीक है। धीरे धीरे मंच पर स्वीकार्य भी हो गया है ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 9, 2015 at 9:46am
आदरणीया राजेश दीदी ग़ज़ल पर सराहना और स्नेह के लिए आभार। नमन।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 9, 2015 at 9:45am
आदरणीय कृष्ण मिश्रा भाई जी हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 9, 2015 at 9:44am
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 9, 2015 at 9:43am
आदरणीय निर्मल जी शुक्रिया।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 9, 2015 at 9:42am
आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 8, 2015 at 9:47pm

सुन्दर ग़ज़ल हुई है मिथिलेश जी बहुत बहुत बधाई सभी शेर सुन्दर बने हैं

अब तो मुकम्मल ज़िन्दगी, हर एक को मिलती नहीं

जिस हाथ में है रोटियाँ, उस पाँव में जंजीर है

 

लो, क़त्ल भी मेरा हुआ, कातिल मुझे माना गया

तफ्तीश भी मेरी हुई, मुझको मिली ताज़ीर है

 

कैसे ग़ज़ल अपनी कहूँ, इसमें कई परछाइयाँ

है दाग़ भी, ग़ालिब कहीं या तो कहीं पे मीर है

 ये तो बहुत ही ज्यादा पसंद आये 

 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 8, 2015 at 6:23pm

भाटा हुआ जो रात को, फिर ज्वार कब सुबहा हुआ

सीने में अब अपने समंदर सी कहाँ तासीर है

क्या बात है,इस शेर ने तो सितम ही कर डाला है! लाजवाब !!

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 8, 2015 at 1:08pm

आ0 भाई मिथिलेश जी बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई स्वीकरें .

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