आंखों में आंसू हैं, और गीत ख़ुशी के गा रहा हूं!
कुछ नहीं यारों, मैं तो बस दुनियादारी निभा रहा हूं!!
कुछ अपनों ने लूटा हमको,
कुछ गैरों ने सताया..
मौका मिला जिसे भी, उसने
जी-भर हमें रुलाया..
सबपे किया भरोसा, उसकी क़ीमत चुका रहा हूं!
नित सांझ ढले यादों की,
बारात जब आती है..
भर रहे ज़ख्मों को,
फिर से कुरेद जाती है..
मैं दिल के घाव पे तो, मरहम लगा रहा हूं!
उजड़ गया वो गुलशन,
हमने जिसे लहू से सींचा था..
टूटा नेह का धागा, हमने
इतना ज़ोर से खींचा था..
टूटे हुए धागे पे कुछ, गांठें लगा रहा हूं!
आंखों में आंसू हैं, और.............!
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
हार्दिक आभार,आप दोनों सज्जनों का..
:-)
आदरणीय Jaynit Kumar Verma जी आपकी किसी पहली रचना से गुजर रहा हूँ. इस संभावनाओं से भरे आश्वस्तकारी प्रयास की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.....
अच्छी रचना है आ. Jaynit Kumar Verma जी प्रयासरत रहे,आप और अच्छा लिख सकते हैं |
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