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दुर्दिनों ने आँख का जब यार जाला हर लिया
तब दिखा है मयकशी ने इक शिवाला हर लिया
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बाँटती थी कल तलक तो वो बहुत ही जोर दे
राह ने किस बात से अब पाँव छाला हर लिया
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था सरीफों के लिए वो राह से भटकें नहीं
कोतवालो चोर से पहले ही ताला हर लिया
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टोकता है कौन दिन को दे उजाला कुछ उसे
रात के हिस्से का जिसने सब उजाला हर लिया
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था पुराना ही सही पर मान रखता था तनिक
आप की इस खींचतानी ने दुशाला हर लिया
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माँ खिला लेती थी जूठन बाप गुजरे बाद भी
साहुकारों की हवस ने पर निवाला हर लिया
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
आ० भाई श्याम जी , उत्साहवर्धन के लिय हार्दिक धन्यवाद l
आ० भाई महर्षि जी , हार्दिक आभार l
आ० भाई धर्मेन्द्र जी , ग़ज़ल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक बधाई l
आ० भाई कृष्णा मिश्रा जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार .
आ० भाई गिरिराज जी अपनी उपस्थिति से ग़ज़ल का मन बढ़ने के लिए हार्दिक धन्यवाद l
Aadarniya Dhami Ji,
Aapne bahut sudar tarike se ek chitarn kiya hai. Niche likhi panktiya man ko choo gaee.
माँ खिला लेती थी जूठन बाप गुजरे बाद भी
साहुकारों की हवस ने पर निवाला हर लिया
Bahut badhai.
वाह !!क्या लाजवाब गजल है ,,,ढेरों बधाई आ.धामी जी |
था पुराना ही सही पर मान रखता था तनिक
आप की इस खींचतानी ने दुशाला हर लिया ,,,,,,,,,,,,, लाजवाब शे र ! बधाई
दुर्दिनों ने आँख का जब यार जाला हर लिया
तब दिखा है मयकशी ने इक शिवाला हर लिया
मत्ला जबरदस्त हुआ है! गजल की जान बन गया है!
था पुराना ही सही पर मान रखता था तनिक
आप की इस खींचतानी ने दुशाला हर लिया ,,,,,,,,,,,,, लाजवाब शे र ! आदरणीय लक्ष्मण भाई ,एक और अच्छी गज़ल के लिये बधाइयाँ
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