2122 2122 212
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फिर चिरागों को बुझाने ये लगे
रास्ता तम का सजाने ये लगे
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प्रेत अफजल औ' कसाबों के यहाँ
कुर्सियाँ पाकर जगाने ये लगे
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साजिशें रचते मरे हैं जो उन्हें
देश भक्तों में गिनाने ये लगे
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देश के गद्दार जितने बंद हैं
राजनेता कह छुड़ाने ये लगे
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बनके अपने आज खंजर देख लो
आस्तीनों में छुपाने ये लगे
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हौसला दहशतगरों का यार यूँ
घर के भीतर ही बढ़ाने ये लगे
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है नहीं कश्मीर भारत देश में
बात फिर से बस जताने ये लगे
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पाप इनको यार ‘बंदे मातरम’
'पाक जिंदाबाद’ गाने ये लगे
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जाग जाओं जाँनिसारों जल्द अब
जाफरों के गीत गाने ये लगे
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
आदरणीय भाई हरी प्रकाश जी अपका स्नेह पाकर मनोबल उच्चतम हुआ । गजल पर उपस्थिति के लिए कोटि कोटि धन्यवाद ।
आदरणीय भाई खुर्शीद जी अपका स्नेह पाकर मनोबल उच्चतम हुआ । गजल पर उपस्थिति के लिए कोटि कोटि आभार ।
आदरणीय भाई सौरभ जी , आपके समर्थन से गजल हस्ताक्षरित हुई देख मन में नई उमंग भर गई । यह रचना पोस्ट करते हुए मन में एक संकोच सा था । सोच रहा था इस तरह की गजल को पोस्ट करना मंच के अनुकूल होगा भी या नहीं । आप सभी का स्नेह पाकर आस्वस्थ हूं । हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई विजय शंकर जी, आपका स्नेह पाकर लेखन सार्थक लगा । हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई कृष्ण मिश्रा जी, आपका समर्थन पाकर धन्य हुआ । हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई महर्षि त्रिपठी जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई श्याम मठपाल ली, समर्थन के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय भाई गोपालनारण जी गजल का अनुमोदन और शुभाशीष के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
देश के गद्दार जितने बंद हैं
राजनेता कह छुड़ाने ये लगे
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बनके अपने आज खंजर देख लो
आस्तीनों में छुपाने ये लगे
आदरणीय 'मुसाफ़िर' साहब ,उम्दा और समसामयिक ग़ज़ल है |ढेरों दाद कबूल फरमावें |
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