1222 1222 1222 1222
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बनाता खेत की रश्में चला जो हल नहीं सकता
लगाता दौड़ की शर्तें यहाँ जो चल नहीं सकता
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पता तो है सियासत को मगर तकरीर करती है
कभी तकरीर की गर्मी से चूल्हा जल नही सकता
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भरोसा आँख वालों से अधिक अंधों को जो कहते
तुम्हें धोखा हुआ होगा कि सूरज ढल नहीं सकता
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असर कुछ छोड़ जाएगी मुहब्बत की झमाझम ही
किसी के शुष्क हृदय को भिगा बादल नहीं सकता
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अगर निकले वो आहों से तपन सूरज से भी बढ़कर
न सोचो यार अश्कों से बदन ये जल नहीं सकता
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भरोसा भूल कर भी तुम जहाँ में यार करना मत
छले जो नारियों को नित किसे वो छल नहीं सकता
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दुखाए मात का मन जो ‘मुसाफिर’ ठीक कहता है
उसे वरदान ईश्वर का जहाँ में फल नहीं सकता
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
आ0 भाई गिरिराज जी उत्साहवर्धन और सुझाव के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
किसी के शुष्क हृदय को भिगा बादल नहीं सकता
दरअसल यहा पर गेयता के हिसाब से हृदय को हिरदय पढ़ा गया है अत इसकी मात्रा 22 ली गयी है यदि यह उपयुक्त नहीं है तो मार्गदर्शन करें ।
आ0 भाई मिथिलेश जी प्रशंसा और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आदरणीय लक्ष्मण भाई , बढिया ग्ज़ल हुई है , हार्दिक बधाइयाँ !
पता तो है सियासत को मगर तकरीर करती है
कभी तकरीर की गर्मी से चूल्हा जल नही सकता -- बहुत सुन्दर !
किसी के शुष्क हृदय को भिगा बादल नहीं सकता -- इस मिसरे की तक्तीअ एक बार और कर लीजियेगा -- हृदय को आपने 22 लिया है शायद , 12 होना चाहिये
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर, बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं
ये कमाल के अशआर हुए है-
पता तो है सियासत को मगर तकरीर करती है
कभी तकरीर की गर्मी से चूल्हा जल नही सकता
भरोसा आँख वालों से अधिक अंधों को जो कहते
तुम्हें धोखा हुआ होगा कि सूरज ढल नहीं सकता
आदरणीय भाई खुर्शीद जी अपका स्नेह पाकर मनोबल उच्चतम हुआ । गजल पर उपस्थिति के लिए कोटि कोटि धन्यवाद ।
आदरणीय भाई सोमेश जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई लड़ीवाला जी, समर्थन के लिए हार्दिक आभार ।
पता तो है सियासत को मगर तकरीर करती है
कभी तकरीर की गर्मी से चूल्हा जल नही सकता
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भरोसा आँख वालों से अधिक अंधों को जो कहते
तुम्हें धोखा हुआ होगा कि सूरज ढल नहीं सकता
आदरणीय लक्ष्मण सर ,बहुत बहुत उम्दा अशआर हुए हैं ,सादर अभिनन्दन |
भरोसा आँख वालों से अधिक अंधों को जो कहते
तुम्हें धोखा हुआ होगा कि सूरज ढल नहीं सकता
हर बार की तरह नि:शब्द कर दिया आपने |सुंदर मनोभावों वाली गजल पर हार्दिक बधाई |
बनाता खेत की रश्में चला जो हल नहीं सकता
लगाता दौड़ की शर्तें यहाँ जो चल नहीं सकता --
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दुखाए मात का मन जो ‘मुसाफिर’ ठीक कहता है
उसे वरदान ईश्वर का जहाँ में फल नहीं सकता | वाह !
बहुत सुंदर और भापूर्ण रचना | हार्दिक बधाई श्री लक्ष्मण धामी भाई
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