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सितारे चाँद सूरज तो समय से ही निकलते हैं
दियों की कमनसीबी से अँधेरे रोज छलते हैं
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किसी को देखकर गिरता सँभल जाते समझ वाले
जिन्हें लत ठोकरों की हो कहाँ गिरकर सभलते हैं
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खुशी घर में उन्हीं से है खुदा की नेमतें वो तो
न डाँटा कर कभी उनको अगर बच्चे मचलते हैं
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कहा है सच बुजुर्गों ने करें सब मनचली रूहें
किए बदनाम तन जाते कि कहकर ये फिसलते हैं
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अगर है पालना विषधर बनाओ यार खुद को शिव
पिलाया दूध भी जाए तो ये विष ही उगलते हैं
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कहो क्या दीन है उनका कहो ईमान है कैसा
जरा सी बात पर जो देवता अपना बदलते हैं
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बहुत मीठी करें बातें दिखें भेले सियासतदाँ
‘मुसाफिर’ ये वो अजगर जो बिना चाबे निगलते हैं
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
आ0 भाई धर्मेंद्र जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार !
।
आ0 भाई गिरिराज जी, उत्साहवर्धन त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए हार्दिक धन्यवाद। आ0 मिथिलेश जी, गजल पर विस्तृत प्रतिक्रिया के हार्दिक आभार ।
आ0 भाई गुमनाम जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई विजय जी, गजल का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
आ0 भाई श्याम जी, गजल पर उपस्थिति के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई महर्षि जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
आ0 भाई सुरेन्द्र जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई हरिप्रकाश जी, गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार ।
आ0 भाई आलोक जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई कृष्णा जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
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