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जब धरा पर रह न पाये जो कभी औकात से
चाँद पर पहुँचो भले ही क्या भला इस बात से
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मुफ्तखोरी की ये आदत यार चोरी से बुरी
चोर भी समझा रहा ये बात हमको रात से
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बाँटने में हर हुकूमत, व्यस्त है खैरात ही
देश का, खुद का भला कब, हो सका खैरात से
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हो न पाये कौवे शातिर, लाख कोशिश बाद भी
बाज आयी कोयलें कब, दोस्तों औकात से
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प्यार होना भी जरूरी औ’ जरूरी दौलतें
चल नहीं पाती अकेले, जिन्दगी जज्बात से
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बेअसर हमको तो धूपें जेठ की भी हो गयीं
भीगता पलपल है दामन, अश्क की बरसात से
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छोड़ दें इससे ‘मुसाफिर’, स्वप्न का भी स्वप्न क्या
लड़ न पाये स्वप्न को गर यार हम हालात से
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
आ0 भाई मुकेश श्रीवास्तव जी, ग़ज़ल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद l
आ0 भाई गुमनाम जी, ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार l
आ0 प्रतिभा बहन, गजल को इतना मान देने के लिए हार्दिक बधाई ।
आ0 भाई महर्षि जी उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आ0 भाई श्यामनारायण जी गजल पर उपस्थिति के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई हरिप्रकाश जी गजल की प्रशंसा के लिए आभार ।
आ0 भाई गोपालनारायण जी , स्नेहाशीष पाकर धन्य हुआ । धन्यवाद ।
आ0 भाई मिथिलेश जी प्रशंसा और उत्साहवर्धन के लिए आभार । आपने ठीक फरमाया आ0 राजेश दीदी का सुझाव बेहतरीन है उसे सम्मान सहित स्वीकार लिया है । धन्यवाद ।
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