मिटा दूँ या मिट जाऊँ
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कब से भटक रहा हूँ
कभी पानी हुये
तो कभी खुद को नमक किये
कोई तो मिले घुलनशील
या घोलक
घोल लूँ या घुल जाऊँ ,
समेट लूँ
अपने अस्तित्व में या
एक सार हो जाऊँ , किसी के अस्तित्व संग
विलीन कर दूँ ,
खुद को उसमें
या कर लूँ ,
उसको खुद में
भूल कर अपने होने का अहम
और भुला पाऊँ किसी को
उसके होने को
ख़त्म हो जाये दोनों का ठोस पन
ज़ाहिर हो वास्तविक तरलता
बचे बस प्रेम
बहे बस प्रेम
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
भर जाये ,
लबालब ॥
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीया बड़े भाई गोपाल जी , रचना की भाव भूमि के अनुमोदन के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीया मंजरी जी , सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीय नीरज भाई , रचना के अनुमोदन के लिये आपका शुक्रिया ।
आ० अनुज
भारतीय दर्शन में जो सायुज्य मुक्ति है उसकी याद दिलाती रचना i सादर i
घोल लूँ या घुल जाऊँ ,
समेट लूँ
अपने अस्तित्व में या
एक सार हो जाऊँ , किसी के अस्तित्व संग
विलीन कर दूँ ,
खुद को उसमें
या कर लूँ ,
उसको खुद में------------------अनुज भंडारी जी i भारतीय दर्शन में चार प्रकार की मुक्तियाँ मानी गयी हैं ,जिनमे सर्वोपरि है -सायुज्य i इसमें जीव परमात्मा के अस्तित्व में लीन और विलीन हो जाता है i फिर वह भव बंधन से मुक्त हो जाता है i आपकी कविता उसी की याद दिलाती है i सादर i
आदरणीय गिरिराज जी रोज़मर्रा के अहसासों को बखूबी बयान किया आपने । हार्दिक बधाई ।
बचे बस प्रेम
बहे बस प्रेम
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
भर जाये ,
लबालब ॥.... बहुत सुंदर ......प्रेम ही प्रथम एवं आखिर सत्य है .... सुंदर रचना॥ हार्दिक बधाई।
आदरणीय मिथिलेश भाई , रचना की सराहना के लिये अपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीरा राजेश जी , रचना के भाव का अनुमोदन के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय खुर्शीद भाई , रचना के भाव आपको पसंद आये , हार्दिक खुशी हुई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
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