" फासला " (लघुकथा)
"कादिर मियाँ आप होश में तो है शेख सादी को रिहा करवाना चाहते है, वतन की अमन परस्ती का भी ख्याल करो।" वसीम साहब कुछ तेज आवाज में हैरानी से बोले। जबाब में कादिर मियाँ का लहजा भी उखड़ गया। "वसीम साहब। 'शेख' के रिहा होने से हमारा कारोबारी फायदा होगा, उसकी नजरबंदी से हम पहले ही बहुत नुक्सान उठा चुके है। रही बात हालात की तो उस पर नजर रखना आपकी हुकूमत का काम है।"
"ठीक है कादिर मियाँ मगर दहशतगर्दी का क्या जो फिर से..........।" वसीम साहब की बात कादिर मियाँ ने बीच में ही काट दी। "इस छोटी मोटी दहशतगर्दी को छोड़िये, बाहर से होने वाली दहशतगर्दी से बचाइये अपने वतन को।" वसीम साहब पर गहरी नजर डालते हुये कादिर ने अपनी बात पूरी की। "और इसके लिये जरूरी है आपकी सीट का कायम रहना और यकीं रखिये हम आप के साथ है, गर आप चाहेगें तो।"
वसीम साहब घर में पैदा हो रहे इस दहशतगर्द का और बाहरी दहशतगर्द का फासला ही तय करते रह गये और कादिर मियाँ खुदा हाफिज करके जा चुके थे।
(मौलिक एवम अप्रकाशित)
'विरेन्दर वीर मेहता'
Comment
बहुत खूब सामयिक व्यंगात्मक लघु कथा.हार्दिक बधाई आपको जय हिन्द
Aadarniya Vitender Veer Mehta JI,
Aajkal kuch ese hi halat desh main hain. Samayik laghu katha ke liye badhai.
आपकी लघुकथा देश प्रेम को बढ़ावा देती है ,,हार्दिक बधाई आ.वीरेंदर वीर जी |
आदरणीय विरेन्दर वीर मेहता जी , सुन्दर रचना , वर्तमान परिपेक्ष्य में सटीक बैठती है , हार्दिक बधाई ,खुदा हाफिज:-)))))
बड़ी ही मौजूं और सटीक रचना | अपने राजीनीतिक फायदे के लिए मुल्क की भी भेंट चढ़ा सकते हैं ये लोग | बहुत बहुत बधाई इस रचना की लिए..
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