जिद्द की दीवार
पड़ोस के जोशीजी की छोटी बेटी माला फिर मायके लौट आयी थी, बड़ी बेटी कामना पहले ही पति से संबंध विच्छेद के बाद घर में विराजमान थी। जोशीजी बेटियो की जिद्दी स्भाव के चलते चिन्तित रहते थे तो उनकी पत्नी बेटियो के ससुराल वालो को भला-बुरा कहकर अपना मन शान्त कर लेती थी। दिन गुजरने के साथ बूढे माँ बाप की उम्र का ग्राफ बढ़ रहा था और बेटियो की जवानी ढल रही थी।
लेकिन एक शाम छोटा दामाद रवि, अचानक अपनी पत्नि को लिवाने आ पहुँचा तो घर में सभी के चेहरे खिल गये। माला भी सारी बाते भूल कर चलने की तैयारी मे लग गयी।
न चाहते हुये भी कामना 'दोनो' को बिदा करते समय रवि से इस तरह अचानक लिवाने का कारण अनायास पूछ ही बैठी। रवि कुछ झिझक कर बोला। "क्या कहुँ, बस यूँ समझो जीजी ज्ञान मिल गया।"
कामना के प्रश्नचिन्ह बने चेहरे को देखते हुये रवि कहने लगा। "जीजी, ये पति पत्नि का रिश्ता सात फेरो की नींव पर बने दो मकानो की तरह होता है जिसके बीच अक्सर पति पत्नि की आपसी गल्तियो और जिद्द की ईटो से बनी दीवार खड़ी हो जाती है। 'दोनो' को चाहिये कि समय समय पर इन ईटो को गिराते रहे कयोंकि जब ये दीवारे अपने ही वज़ूद से बड़ी हो जाती है तो पति पत्नि एक दूसरे की आँखो से ओझल हो जाते है। और अंत में दीवारे गिरती भी है तो कुछ शेष नही रहता।" रवि की बात पूरी हो चुकी थी।
"लेकिन कई महीनो बाद ये समझदारी का ज्ञान....." कामना खामोश नजरो से रवि को देखती हुयी बोली।
"नही जीजी, मैं इतना ज्ञानी नही। दरअसल कल करण भाई साहब (कामना का पति) मिले थे।" रवि आँखे झुकाये बोला। "ये उन्ही के शब्द थे, "कह रहे थे रवि... हम तो समय रहते ये दीवार नही गिरा पाये मगर तुम चाहो तो............।" अपनी बात को अधूरा ही छोड़ रवि माला का हाथ पकड़ जा चुका था।
रात गुजरते गुजरते कामना भी अपनी जिद्द की दीवार गिराकर लौटने का निर्णय कर चुकी थी।
"विरेन्दर वीर मेहता"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सन्देश परक सीधी सरल रचना के लिए बधाई श्री वोरेम्द्र वीर मेहता जी
आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी .. हरी प्रकाश दुबे जी.... गिरिराज भंडारी जी.. गणेश बागी जी... मोहन सेठी जी ...शिज्जू शकूर जी .....सोमेश कुमार जी ... और आदरणीय सौरभ पांडेयजी .... कथा पर समय और अमूल्य विचार देने के साथ हौसल्ला अफजाई के लिए आप सभी का तहे दिल से आभारी हूँ .
आदरणीय गुनीजनो कथा की समीक्षा और उसकी कमियों की और ध्यान आकर्षित करवाने और सुझाव देने के लिए आप सभी का हार्दिक धन्यवाद....मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपका सहयोग मिलता रहेगा...
इस कथा के शीर्षक पर आदरणीय अभी ध्यान गया. ज़िद का बहुवचन ज़िद ही रहने दें. ज़िद्दों करना व्याकरण सम्मत नहीं होगा.
जिसे ज़िद की लत हो उसे ज़िद्दी कहा जाता है. उस हिसाब से इस कथा का शीर्षक ज़िद्दियों की दीवार होगा.
सुंदर विषय है ,आजकल ये दृश्य आम सा हो गया है ,गुणियों की बातों पर ध्यान दें .टंकन-त्रुटियों को सुधार लें |apka अनुज
आदरणीय विरेन्द्र जी सार्थक संदेश देती हुई कहानी है, बधाई आपको
आदरणीय वीरेन्द्र वीर जी, आपकी कहानी का कथ्य संदेशपरक है. आपको हार्दिक बधाइयाँ. वैसे कथानक पर अभी और काम करने की आवश्यकता है. विश्वास है आपका अभ्यास सतत बना रहेगा ताकि आपकी और समृद्ध कहानियों से हम लाभान्वित होते रहें.
शुभेच्छाएँ
लघु कथा भावपूर्ण एवं शिक्षाप्रद है ...बहुत खूब.... बधाई
सुन्दर प्लाट पर अच्छी लघुकथा का प्रयास हुआ है, कसावट की कमी लगी, बहरहाल इस प्रयास पर बधाई आदरणीय वीरेंद्र जी.
'जिद्दो की दीवार' की जगह 'जिद्द की दीवार' कहना भी ठीक होगा.
बहुत खूब आदरणीय , पति पत्नि के सम्बन्धों का गणित बढिया समझाया आपने ! बधाई ।
आदरणीय वीरेंद्र मेहता जी, सुन्दर संदेशपूर्ण रचना , हार्दिक बधाई ! सादर
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