2122- 2122- 212
ख़्वाब से डरने लगा हूँ इन दिनों
नींद से मैं भागता हूँ इन दिनों
धड़कनें हैं तेज़ राहें पुरख़तर
मैं सँभलकर चल रहा हूँ इन दिनों
वुसअते शब बेबसी तन्हाइयाँ
इन अज़ाबों से घिरा हूँ इन दिनों
मुझपे भारी है हर इक लम्हा बहुत
फिक्र की तह में दबा हूँ इन दिनों
आइना हटकर परे मुझसे कहे
पत्थरों सा हो गया हूँ इन दिनों
कोई बतलाये मुझे मैं कौन हूँ
पहले क्या था और क्या हूँ इन दिनों
बदहवासी बेख़याली में “शकूर”
राहे फ़र्दा ढूँढता हूँ इन दिनों
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय मिथिलेश जी रचना आपकी नज़रों से होकर ग़ुज़री यही बहुत है, कई बार निजी व्यस्तता के कारण प्रतिक्रिया देना संभव नहीं हो पाता, आपका हार्दिक आभार रचना की सराहना के लिये।
आदरणीय शिज्जु भाई जी ये ग़ज़ल पहले भी पढ़ी थी लेकिन कमेन्ट नहीं दे पाया था.
ग़ज़ल उम्दा और बेहतरीन हुई है शेर दर शेर दिल से दाद हाज़िर है. सादर
आदरणीय खुर्शीद जी नवाज़िशों के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
धड़कनें हैं तेज़ राहें पुरख़तर
मैं सँभलकर चल रहा हूँ इन दिनों
वुसअते शब बेबसी तन्हाइयाँ
इन अज़ाबों से घिरा हूँ इन दिनों
आदरणीय शिज्जु सर ,उम्दा ग़ज़ल हुई है ,ढेरों दाद कबूल फरमावें |इस शेर पर दिलोजान कुर्बान
आइना हटकर परे मुझसे कहे
पत्थरों सा हो गया हूँ इन दिनों
सादर अभिनन्दन |
जानकारी देने हेतु शुक्रिया आ.शिज्जु "शकूर" जी |
आदरणीय maharshi tripathi ji आपका तहेदिल से शुक्रिया,
वुसअत- विस्तार, वुसअते शब- रात की व्यापकता
अजाब- मुसीबत या प्रलय, पुरखतर- खतरों से भरा हुआ
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय जान गोरखपुरीजी आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय धर्मेन्द्र जी आपका तहेदिल से शुक्रिया
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