ना हाथों में कंगन,
न पैरों में पायल,
ना कानो में बाली,
न माथे पे बिंदियाँ
कुदरत ने सजाया है उसे!!
न बनावट,ना सजावट
न दिखावट,ना मिलावट
गाँव की मिट्टी ने सवारा है उसे!!
ये बांकपन ,ये लड़कपन
चंचल अदाओं में भोलापन,
जवानी के चेहरे में हय!....
हँसता हुआ बचपन!!
वख्त ने जैसे....संजोया है उसे!!
उसकी बातें सुनती हैं तितलियाँ
उसीके गीत गाती हैं खामोशियाँ
हँसी पे जिसकी फ़सल लेती है अंगड़ाईयाँ
उसके बगैर,बहारों में है वीरानियाँ..!!
फ़िजाओं..हवाओं...घटाओं...हर किसी से है दोस्ती उसकी
हर एक ने समझा है उसे!!
कितना खुबसूरत,कितना दिलकश
कितना प्यारा है वो अनजान!
जो है मेरी दुनिया में..
आया चन्द दिनों का मेहमान!!
क्या जाने वो......
किसी ने कितना सोचा है उसे!!
‘मौलिक व् अप्रकाशित’
‘जान’ गोरखपुरी
Comment
आदरणीय shyam mathpal जी हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!!
भाई ! महर्षि प्रोत्साहन हेतु बहुत बहुत धन्यवाद!!
सराहना के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय जीतेन्द्र जी!
बहुत सुंदर आदरणीय जान गोरखपुरी जी बहुत बहुत बधाई आपको
आप का 'मेहमान' बड़ा रोचक लगा ....बधाई
कृष्ण मिश्रा जी आपकी यह प्रस्तुति पसंद आयी, बधाई प्रेषित करता हूँ.
Aadarniya Jaan Gorakhpuri,
Woha -- Woha ..... Bahut hi sundar rachna .... Hardik badhai.
सुन्दर ,,भावपूर्ण रचना पर आपको हार्दिक बधाई आ.बड़े भाई krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी |
सुंदर भाव, ख्याल की सुंदर प्रस्तुति. बधाई आदरणीय कृष्णा जी
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