अपने कोकून को
तोड़ दिया है मैंने अब
जिसमे कैद था, मैं एक वक़्त से
और समेट लिया था अपने आप को
इस काराग्रह में ,एक बंदी की तरह !
निकल आया हूँ बाहर , उड़ने की चाह लिए
अब बस कुछ ही दिनों में, पंख भी निकल आयेंगे
उड़ जाऊंगा दूर गगन में कहीं , इससे पहले की लोग
मुझे फिर से ना उबाल डालें , एक रेशम का धागा बनाने के लिए
और उस धागे से अपनी , सतरंगी साड़ियाँ और धोतियाँ बनाने के लिए !!
© हरि प्रकाश दुबे
“मौलिक व अप्रकाशित “
Comment
एक नए प्रतिक के साथ कविता बढ़ती है, अच्छी रचना हुई है बहुत बहुत बधाई आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी.
Aadarniya Hari Prakash Dubey Ji,
Badi Marmik rachna. Apne shauk ke liye kisi ki aajadi wa jidangi se khelte hain. Aapko tahe dil se badhai.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति आ.Hari Prakash Dubey जी आपको ढेरो बधाई |
बहुत सुंदर ॥
अपने त्याग और बलिदान से सब कुछ दे जाना, आखिर उसे भी अधिकार है अपने जीवन को कैसे जिए.. सुंदर प्रस्तुति आदरणीय हरिप्रकाश जी. हार्दिक बधाई
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