मैं तो प्रेम रस से
बादलों की तरह
भरा हुआ
बेचैन था
तुम पर बरसने को
मगर
तुमने पुकारा ही नहीं मुझको
सूखी
प्यासी
व्याकुल
दरकती हुयी जमीन बनकर
मेरा बरस जाना
जरूरी थी
क्योंकि
मैं भरा चुका था
अन्दर से
पूरी तरह
मेरी हदों से बाहर
निकला प्रेम रस
आँखों की कोरों से फूटकर
अश्रुधार बनकर
और बरसता रहा
उम्र भर
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आपकी कल्पना पर आपको सादर बधाई आ. umesh katara जी |
बहुत सुंदर कल्पना. बधाई आदरणीय उमेश जी
आदरणीय Hari Prakash Dubeyजी शुक्रिया
आदरणीय krishna mishra 'jaan'gorakhpuriजी शुक्रिया
आदरणीय Nidhi plus ji शुक्रिया
आदरणीय उमेश कटारा जी ,आजकल आपकी ग़ज़लों से हटकर कुछ नया पढने को मिल रहा है ,रचना अच्छी है ,बधाई आपको !सादर
बहुत सुन्दर!!भावपूर्ण कविता आदरणीय उमेश सर! हार्दिक बधाईया!!
अतृप्त श्रृंगार की बहुत अच्छी कल्पना है ..
बहुत ही सुन्दर रचना हुई उमेश
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