दिलॊं कॆ हौसले देखें घटाओं से ज़रा कह दॊ ।।
जलाये हैं चरागों को हवाओं से ज़रा कह दॊ ।। (1)
तुम्हॆं मॆरी इबादत की कसम है ऐ मिरे क़ातिल,
अभी टूटा नहीं हूं मैं ज़फ़ाओं से ज़रा कह दॊ।। (2)
घनी ज़ुल्फ़ॆं मुझॆ बांधॆं इरादा तॊड़ दॆं मॆरा,
नहीं पालॆं भरम क़ातिल अदाऒं सॆ ज़रा कह दॊ !! (3)
मिलूँगा मैं गरीबों की दुआ में रोज तुमको अब,
बुला लेंगी मुझे अपनीं वफाओं से ज़रा कह दॊ ।। (4)
शहर सारे हुये पत्थर दिलों में रंज है भारी,
इमारत मत बनें तुम आज गाँवों से ज़रा कह दॊ ।। (5)
अगर ये पैर की जूती बगावत पे उतर आई,
कभी सिर पे चढ़ेगी 'राज़' पावों से ज़रा कह दॊ ।।(6)
"राज़ बुन्देली"
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
लाजव़ाब! लाजव़ाब! लाजव़ाब!
दिल बाग़ बाग़ हो गया ये गजल पढके!
आदरणीय राज बुन्देली जी बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई
इन मिसरों पर पुनर्विचार निवेदित है -
तुम्हॆं मॆरी इबादत की कसम है ऐ मिरे क़ातिल, (2 मात्रा कम है )
शहर सारे हुये पत्थर दिलों में रंज है भारी, (शह्र वज्न 21 है)
अगर ये पैर की जूती बगावत पे उतर आई तो, (तो अधिक हो रहा है)
आदरणीय कवि राज बुंदेली जी बहुत सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
आ० राज बुन्देली जी
दुसरे और तीसरे शेर की अंतिम पंक्ति हू-ब- हू एक जैसी . कोई टाइप त्रुटि है क्या ! कृपया देख लें . सादर .
आदरणीय राज़ बुन्देली जी ,सुन्दर ग़ज़ल है...
शहर सारे हुये पत्थर दिलों में रंज है भारी,
इमारत मत बनें तुम आज गाँवों से ज़रा कह दॊ....वाह , हार्दिक बधाई आपको ! सादर
Aadarniya Raj Bundeli Ji,
Har Sher... Lajawab.....Kya Khub...Bahut -- Bahut Badhai.
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