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ग़ज़ल -- बूँद भी नहीं मिलती...... (मिथिलेश वामनकर)

212---1222---212---1222

 

धूप भी नहीं मिलती छाँव भी नहीं मिलती

ताकतों के साए में ज़िन्दगी नहीं मिलती

 

ज़िन्दगी मुकम्मल हो ये कभी नहीं मुमकिन 

गर मिले समंदर तो तिश्नगी नहीं मिलती

 

आसमां सियासत से रूबरू हुआ जबसे

चाँद भी नहीं मिलता चांदनी नहीं मिलती

 

जाम के हवाले से दो जहां उठा लाया

मैकशी के आलम में बूँद भी नहीं मिलती

 

मत करो कदमबोसी दूरियां जरूरी है

ज्यूं तले  चरागों के रौशनी नहीं मिलती

 

बात में सचाई हो, रूह में खुदाई हो

आदमी नहीं जिसमें कुछ कमी नहीं मिलती

 

धुंध ये अजीयत की, खा गई नसीबों को

हाथ की लकीरें भी साफ़ सी नहीं मिलती

 

हसरतों के साये में बेकफन मरासिम है

आँख का मरा पानी अब नमी नहीं मिलती

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 8:54pm

आदरणीय निलेश जी सही कहा आपने मंच पर सदैव सीखने मिलता है. ग़ज़ल पर उत्साहवर्धक सकारात्मक प्रतिक्रिया के हार्दिक आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 25, 2015 at 8:11am

बहुत खूब. 
गुरुजानो के सुझाव समृद्धि की ओर ले जाएँगे.
सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 4:33am

मत करो कदमबोसी जात पे भरोसा हो 

यार यूं खुशामद से, हर ख़ुशी नहीं मिलती

मत करो कदमबोसी, दौलते-अना खोकर/देकर  

यार यूं खुशामद से, हर ख़ुशी नहीं मिलती


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 4:18am

आदरणीय गिरिराज सर, आपने जो मार्गदर्शन दिया है, उसके अनुसार अशआर -

ज़िन्दगी मुकम्मल हो ये कभी नहीं मुमकिन 

जब मिले कोई दरिया, तिश्नगी नहीं मिलती

कुरबतें घटाती हैं , हर नज़र की  बीनाई

ज्यूं तले  चरागों के रौशनी नहीं मिलती

मत करो कदमबोसी दूरियां जरूरी है 

यार यूं खुशामद से, हर ख़ुशी नहीं मिलती


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 1:45am

आदरणीय गिरिराज सर, आपने जो मार्गदर्शन दिया है वह मेरे लिए बहुत अमूल्य है. आपने एक पाठ और सिखा दिया कि कहन में तार्किकता होनी चाहिए. सादर आभार.  समंदर और प्यास के विरोधाभास को दूर करने के लिए शेर निवेदित है 

ज़िन्दगी मुकम्मल हो ये कभी नहीं मुमकिन 

जब मिले कोई दरिया, तिश्नगी नहीं मिलती  

मत करो कदमबोसी दूरियां जरूरी है               

पास में चरागों के रौशनी नहीं मिलती

 कुरबतें घटाती हैं , हर नज़र की  बीनाई

दूरिया मिटाने से चाँदनी नहीं मिलती ............ नए शेर के लिए मिसरा ए उला का लालच नहीं छोड़ पाया और पुराने मिसरा ए सानी का भी . सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 24, 2015 at 11:08pm

आदरनीय मिथिलेश भाई , बहुत बेहतरीन गज़ल हुई है , सभी अश आर अच्छे लगे । आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

तार्किक दृष्टि कोण से दो एक मिसरे मेरे विचार से सुधार चाह रहे हैं , अगर आपको भी सहे लगे तो सुधार लीजियेगा --

ज़िन्दगी मुकम्मल हो ये कभी नहीं मुमकिन 

गर मिले समंदर तो तिश्नगी नहीं मिलती     -----   जब नदी नज़र में है , तिश्नगी नहीं मिलती  ( समन्दर, प्यास किसीका कभी नही बुझा सकता , चाहे प्यास रहते समन्दर मिल जाये ) 

 

मत करो कदमबोसी दूरियां जरूरी है               

ज्यूं तले  चरागों के रौशनी नहीं मिलती    -----      ज्यूँ  मेरे ख़्याल से अर्थ को बिगाड़ रहा है --- पास मे चरागों के रोशनी नहीं मिलती 

और कुछ भी कहें - ज्यूँ  को हटाना मेरे ख्याल से ज़रूरी है , या उला को आपको बदलना पडेगा स तरह कि आप सानी में ज्यूँ कहके जो उदाहरण दे रहे हैं उसे उला संतुष्ट कर सके । कुरबतें घटाती हैं , हर नज़र की  बीनाई  , ज्यूं तले  चरागों के रौशनी नहीं मिलती 

 ( यही मिसरा लें ज़रूरी नहीं है  मै तार्किकता का उदाहरण बस दिया हूँ  ) सोच के देखियेगा ॥

                                                                                                                       


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 24, 2015 at 10:35pm

आदरणीय जवाहर लाल जी हार्दिक आभार 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on March 24, 2015 at 10:24pm

मत करो कदमबोसी दूरियां जरूरी है

ज्यूं तले  चरागों के रौशनी नहीं मिलती

 

क्या अभिव्यक्ति है!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 24, 2015 at 8:24pm

आदरणीय उमेश भाई जी आपकी प्रतिक्रिया की सदैव प्रतीक्षा करता हूँ. आपकी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 24, 2015 at 8:23pm

आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आप जैसे सुलझे हुए गज़लकार से दाद पाकर संतोष हुआ और लिखना सार्थक हुआ हार्दिक धन्यवाद  

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