जेल से रिहा होकर बहुत प्रसन्न था वो , कदम उसके उत्साह का साथ नहीं दे पा रहे थे | बस मन में एक ही इच्छा , कितनी जल्दी पहुंचे अपने घर , अपनों के बीच | भागते हुए अपने मोहल्ले में घुसा , नुक्कड़ की दुकान वाले चाचा ने जैसे अनदेखा कर दिया | उसे थोड़ा अजीब तो लगा लेकिन जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते हुए वो घर की ओर लपका | अचानक उसके कान में आवाज़ आई " किसने सोचा था कि ये भी इसमें शामिल हो सकता है , कितना मासूम चेहरा और ऐसी नापाक हरक़त "|
शक के बिना पर उसकी गिरफ्तारी हुई थी , वज़ह थी उसके कुछ दोस्त जो सामाजिक और धार्मिक भेदभाव के विरोध में आवाज़ उठाते थे और कभी कभी देर रात तक उनकी बैठक चलती थी उसके घर | अदालत ने तो बरी कर दिया लेकिन समाज़ की सवालिया नज़रें उसका पीछा नहीं छोड़ रही थीं | जहाँ जाता , लोग पीठ पीछे कुछ न कुछ कह देते |
माँ उसके मन में चल रहे विचारों के झंझावात को समझ गयी | उसने प्यार से उसको समझाया " बाहरी जख्म तो भर जाते हैं लेकिन अंदरुनी जख्मों को भरने में समय लगता है | थोड़ा समय लगेगा और समाज़ भी तुम्हे रिहाई दे देगा "| उसने माँ की गोद में सर रखा और उसके मन की पीड़ा बह निकली |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी | ऐसी स्थिति से निकलने में माता पिता ही सबसे ज्यादा मदद कर सकते हैं ..
शक के कारण भी अगर जेल हो जाएँ या पुलिस पकड़ कर ले जाती है तो मोहल्ले वाले भी शक की नजरों से देखने लगते है | इस बार कोई जख्म हो गया वह भी अंदरूनी जख्म तो फिर उसे भरने के समय तो लगता है | ऐसे में माँ-बाप और परिवार का प्यार ही सबसे बड़ा संबल होता है | सुदर लघु कथा के लिए बधाई श्री विनय कुमार सिंह जी
बहुत बहुत आभार आदरणीय वीरेन्द्र मेहता जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी..
आदरणीय विनय कुमार जी कथा लाजवाब है,...... किये गए अपराध की अपेक्षा झूठ आरोप मन को अधिक पीड़ा देते है.......सुन्दर कथा के लिए बधाई स्वीकार करे.
बहुत खूब कहा आपने आदरणीय विनय जी "बाहरी जख्म तो भर जाते हैं लेकिन अंदरुनी जख्मों को भरने में समय लगता है" बधाई आपको ! सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय कृष्ण मिश्रा जान गोरखपुरी जी ..
उम्दा लघुकथा पर बधाईयां आ० विनय जी!
बहुत बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी..
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