मैं हूँ बीमारे गम लेकिन ऐसा नहीं,
जैसे जुल्फ से जुल्फ टूटकर गिर पड़े !
मेरा दिल कांच की चूड़ियां तो नहीं,
एक झटका लगे टूटकर गिर पड़े !
मैं हूँ बीमारे गम …………
मेरे महबूब ने मुस्कराते हुए ,
नकाब चेहरे से अपने सरका दिया !
चौदहवीं का चाँद रात शरमा गया,
चौदहवीं का चाँद
जितने तारे थे सब टूटकर गिर पड़े !
मैं हूँ बीमारे गम …………
जिक्र जब छिड़ गया उनकी अंगडाई का,
शाख से फूल यूँ ,टूट कर गिर पड़े ,
जैसे दुल्हन कोई प्यार की सेज पर,
जैसे दुल्हन कोई
जिंदगी के मजे लूट कर गिर पड़े !
मैं हूँ बीमारे गम …………
हुस्नवालों की गलियों से मैयत मेरी,
रो के काँधे पे जिस दिन उठाई गयी,
कंघियाँ गेसूओं में फँसी रह गयीं,
आइनें हाथ से छूट कर गिर पड़े !
मैं हूँ बीमारे गम लेकिन ऐसा नहीं,
जैसे जुल्फ से जुल्फ टूटकर गिर पड़े !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
आदरणीय समर कबीर जी, आप जैसे रचनाकार से उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया मिलना मेरे लिए किसी सम्मान से कम नहीं , बहुत बहुत शुक्रिया आपका ! सादर
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर, आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह मिला आपका बहुत - बहुत धन्यवाद ! सादर
आदरणीय मोहन सेठी जी , सही फरमाया आपने . आपके उत्साहवर्धन एवं समर्थन के लिए हार्दिक आभार !
आदरणीय श्याम मठपाल जी सराहना भरी प्रतिक्रया के लिए हार्दिक आभार !
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर ,रचना पर आपकी उपस्थिति और प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार ! सादर
आदरणीय मिथिलेश भाई ,रचना पर आपका समर्थन मिला ,मन प्रसन्न हो गया ,आभार आपका !
आदरणीय जीतेन्द्र भाईसाहब उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत - बहुत धन्यवाद ! सादर
आदरणीय बृजेश नीरज जी , पहले इसे लिखना चाह रहा था जैसे जुल्फ़ो से जुल्फ टूटकर गिर पड़े ,पर लगा की ये सही नहीं होगा , मार्गर्शन अपेक्षित है ! सादर
बहुत ही खूबसूरत अंदाज. दिली बधाई आदरणीय हरिप्रकाश जी
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