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ग़ज़ल -नूर 'मैं काफ़िर हूँ प् ना-शुक्रा नहीं हूँ'

१२२२/१२२२/१२२ 

किसी की आँख का क़तरा नहीं हूँ
ग़ज़ल में हूँ मगर मिसरा नहीं हूँ.
.
न जाने क्या करूँगा ज़िन्दगी भर  
तेरे सदमे से मैं उबरा नहीं हूँ.
.
अना से आपकी टकरा गया था
मैं टूटा हूँ मगर बिखरा नहीं हूँ.
.
खुदाया हश्र पर नरमी दिखाना
मैं काफ़िर हूँ प् ना-शुक्रा नहीं हूँ.
.
सफ़र में हूँ, कोई सूरज हो जैसे
कहीं भी एक पल ठहरा नहीं हूँ.
.
तराशेगी मुझे कुछ और क़िस्मत
अभी पूरी तरह निखरा नहीं हूँ.
.
सुखाती हैं नमी दिल की, हवाएँ
समंदर हूँ मगर गहरा नहीं हूँ.
.  
मैं पूरी तौर पे बिगड़ा नहीं था
मैं पूरी तौर पे सुधरा नहीं हूँ.
..
मैं सुनता हूँ तेरी हर एक धड़कन
मेरे नादान दिल! बहरा नहीं हूँ.
.  
बताऊँ ख़ामियाँ कैसे मैं तेरी
मैं अपने आप से गुज़रा नहीं हूँ.
.
भिगो दूँ आ तुझे बाहों में लेकर
बरसता अब्र हूँ सहरा नहीं हूँ.  
.
नूर 
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by vandana on March 28, 2015 at 6:30pm

अना से आपकी टकरा गया था 
मैं टूटा हूँ मगर बिखरा नहीं हूँ.
.
खुदाया हश्र पर नरमी दिखाना 
मैं काफ़िर हूँ प् ना-शुक्रा नहीं हूँ. 
.
सफ़र में हूँ, कोई सूरज हो जैसे 
कहीं भी एक पल ठहरा नहीं हूँ.
.
तराशेगी मुझे कुछ और क़िस्मत 
अभी पूरी तरह निखरा नहीं हूँ.


.  
मैं पूरी तौर पे बिगड़ा नहीं था 
मैं पूरी तौर पे सुधरा नहीं हूँ.
..

बताऊँ ख़ामियाँ कैसे मैं तेरी 
मैं अपने आप से गुज़रा नहीं हूँ. 

वाह आदरणीय निलेश सर बहुत बढ़िया ग़ज़ल 

Comment by Shyam Narain Verma on March 28, 2015 at 3:52pm
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई!

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