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कहाँ आज जश्ने बहारा /// हिन्दी गजल (एक प्रयास)

 मुतकारिब मुसद्दस सालिम

     १२२   १२२   १२२

 

अधूरा  मिलन  है  हमारा

नहीं  प्यार  ऐसा  गवारा I

 

मिले गर न हम इस जनम में

जनम  साथ लेंगे  दुबारा I

 

भटकता अकेला गगन में

विपथ एक टूटा   सितारा  I

 

समय की बड़ी बात होती

कहाँ आज जश्ने बहारा I

 

तपस्या सदृश मूक जीवन

सभी ने जतन से संवारा I

 

अभी से थका जीव-मांझी

बहुत दूर पर है किनारा I  

 

कहाँ रोटियां आज सेंके

सताया  हुआ  सर्वहारा I

 

छिपा है क्षितिज पार कोई

यही मान  मैंने निहारा I

 

कहो हाल ‘गोपाल’ कैसा ?

धरा से किसी ने पुकारा !

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 4, 2015 at 5:21pm

आ० विजय सर !

आपका सादर आभार .

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 4, 2015 at 5:15pm

कहाँ रोटियां आज सेंके

सताया  हुआ  सर्वहारा I

 

छिपा है क्षितिज पार कोई

यही मान  मैंने निहारा I....आदरणीय गोपाल सर एक से बढ़कर एक उम्दा शेर ..इस सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सादर 

Comment by shree suneel on April 4, 2015 at 12:22am
छिपा है क्षितिज पार कोई
यही मान मैंने निहारा I
बहुत खूब सर, चित्रात्मक...

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 3, 2015 at 9:14pm

आदरणीय गोपाल सर, बहुत सुन्दर और बेहतरीन ग़ज़ल हुई है. सभी अशआर एक से बढकर एक है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाए.

जिन दो अशआर में थोड़ा त्रुटी महसूस हुई उसे आदरणीय नीलेश जी इंगित कर चुके है. उनसे मैं भी सहमत हूँ यदि को गर करते हुए नीलेश जी द्वारा सुझाया गया मिसरा बहुत अच्छा है. आवारा वाला मिसरा बदलना होगा. 

आदरणीय नीलेश जी ने बहुत प्यारी और सार्थक प्रतिक्रिया दी है, उससे सहमती व्यक्त करते हुए पुनः दोहरा रहा हूँ- " आपकी ग़ज़ल यात्रा के पड़ाव को निरुपित कर रही है और अब आपको मिसरे लिखकर बहर में नहीं करना पड़ रहा है अपितु मिसरे स्वयमेव बहर में आ रहे हैं ..."

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 3, 2015 at 6:55pm

बहुत खूब आ.
यदि थोडा लय बाधित कर रहा है
मिले यदि नहीं इस जनम में....इसे 
मिले गर न हम इस जनम में करके देखिये...

आवारा को अवारा करने से भी दोष उत्पन्न हो रहा है.
शेष प्रस्तुति आपकी ग़ज़ल यात्रा के पड़ाव को निरुपित कर रही है और अब आपको मिसरे लिखकर बहर में नहीं करना पड़ रहा है अपितु मिसरे स्वयमेव बहर में आ रहे हैं ...
सादर 
 

Comment by Samar kabeer on April 3, 2015 at 2:41pm
आली जनाब डॉ.गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,आदाब,सुन्दर ग़ज़ल के लिये दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by Shyam Narain Verma on April 3, 2015 at 11:20am
सुंदर भावों की सुंदर गजल   … हार्दिक बधाई आदरणीय
Comment by Dr. Vijai Shanker on April 3, 2015 at 6:47am
भटकता अकेला गगन में
विपथ एक बादल अवारा I
समय की बड़ी बात होती
कहाँ आज जश्ने बहारा I
तपस्या सदृश मूक जीवन
सभी ने जतन से संवारा I
खूब, बहुत खूब , सुन्दर , बधाई आदरणीय डॉ o गोपाल नारायण जी , सादर।

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