मुतकारिब मुसद्दस सालिम
१२२ १२२ १२२
अधूरा मिलन है हमारा
नहीं प्यार ऐसा गवारा I
मिले गर न हम इस जनम में
जनम साथ लेंगे दुबारा I
भटकता अकेला गगन में
विपथ एक टूटा सितारा I
समय की बड़ी बात होती
कहाँ आज जश्ने बहारा I
तपस्या सदृश मूक जीवन
सभी ने जतन से संवारा I
अभी से थका जीव-मांझी
बहुत दूर पर है किनारा I
कहाँ रोटियां आज सेंके
सताया हुआ सर्वहारा I
छिपा है क्षितिज पार कोई
यही मान मैंने निहारा I
कहो हाल ‘गोपाल’ कैसा ?
धरा से किसी ने पुकारा !
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आ० विजय सर !
आपका सादर आभार .
कहाँ रोटियां आज सेंके
सताया हुआ सर्वहारा I
छिपा है क्षितिज पार कोई
यही मान मैंने निहारा I....आदरणीय गोपाल सर एक से बढ़कर एक उम्दा शेर ..इस सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सादर
आदरणीय गोपाल सर, बहुत सुन्दर और बेहतरीन ग़ज़ल हुई है. सभी अशआर एक से बढकर एक है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाए.
जिन दो अशआर में थोड़ा त्रुटी महसूस हुई उसे आदरणीय नीलेश जी इंगित कर चुके है. उनसे मैं भी सहमत हूँ यदि को गर करते हुए नीलेश जी द्वारा सुझाया गया मिसरा बहुत अच्छा है. आवारा वाला मिसरा बदलना होगा.
आदरणीय नीलेश जी ने बहुत प्यारी और सार्थक प्रतिक्रिया दी है, उससे सहमती व्यक्त करते हुए पुनः दोहरा रहा हूँ- " आपकी ग़ज़ल यात्रा के पड़ाव को निरुपित कर रही है और अब आपको मिसरे लिखकर बहर में नहीं करना पड़ रहा है अपितु मिसरे स्वयमेव बहर में आ रहे हैं ..."
बहुत खूब आ.
यदि थोडा लय बाधित कर रहा है
मिले यदि नहीं इस जनम में....इसे
मिले गर न हम इस जनम में करके देखिये...
आवारा को अवारा करने से भी दोष उत्पन्न हो रहा है.
शेष प्रस्तुति आपकी ग़ज़ल यात्रा के पड़ाव को निरुपित कर रही है और अब आपको मिसरे लिखकर बहर में नहीं करना पड़ रहा है अपितु मिसरे स्वयमेव बहर में आ रहे हैं ...
सादर
सुंदर भावों की सुंदर गजल … हार्दिक बधाई आदरणीय |
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