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आपने नहीं पहचाना शायद -- अतुकांत - गिरिराज भंडारी

उड़ानें उसकी बहुत ऊँची हो चुकी हैं

बेशक ,  बहुत ऊँची

खुशी होती है देख कर

अर्श से फर्श तक पर फड़फड़ाते

बेरोक , बिला झिझक, स्वछंद उड़ते देख कर उसे

जिसके नन्हें परों को

कमज़ोर शरीर में उगते हुए देखा है

छोटे-छोटे कमज़ोर परों को मज़बूतियाँ दीं थीं

अपने इन्हीं विशाल डैनों से दिया है सहारा उसे

परों को फड़फड़ाने का हुनर बताया था  

दिया था हौसला, उसकी शुरुआती स्वाभाविक लड़खड़ाहट को

खुशी तब भी बहुत होती थी

नवांकुरों की कोशिशें देख कर गदगद हो जाता था मन आनन्द से

 

मगर अफसोस भी है आज , कुछ कुछ 

अधिक नहीं , पर है

कुछ की अंधी उड़ानों  पर ,

नासमझियों पर ,

स्वार्थपरता पर ,

संवेदनहीनता पर

उड़ाने इतनी ऊँची हैं, कि

नज़र नहीं आती अब ज़मीन भी

वो ज़मीन ,

जहाँ पहली उछाल भरी थी उसने परवाज़ के लिये

नहीं दिखते उसे अब वो मज़बूत डैने , जिन्होंने तब सहायता की थी उड़ने में

नज़र नहीं आते उसे

आज के नौसिखियों के लड़खड़ाते पंख भी

न ही जागती हैं सहारे बन जाने की इच्छायें , संवेदनायें ,

जैसे कोई बना था उसके लिये

न ही झलकता है कोई अहो भाव

किन्हीं बूढे होते पंखों के प्रति

 

दुखद आश्चर्य है मुझे

कोमलता की कोख से जन्म कैसे पा गई

निपट कठोरता , स्वार्थपरता  

मै तो बददुआयें भी नहीं दे सकता

कैसे दूँ ? अपने इन्हीं डैनों में खिलाया है उसे

आखिर मैंने ही तो पाल पोस के उसे इतना बड़ा किया है

कुछ एक घूंट कड़वा ही सही

पर मैं तो यही कहूँगा ,

खुश रहो ! खूब उड़ो !

मेरे प्यार भरे दिल में कोई जगह ही नहीं है

नफरत के लिये

आपने नहीं पहचाना शायद

मै ओ बी ओ हूँ 

आप सबका ,

अपना ओ बी ओ

********************** 

मौलिक अवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on April 14, 2015 at 11:26am
आदरणीय गिरिराज इस रचना के माध्यम से आपने एक सार्थक संदेश को उद्भावित किया नव अंकुर पांखियों को जिस तरह ओबिओ उडान के लिए एक उन्मुक्त गगन दे रहा है उसी तरह समाज भी इन्हें दे तो बात बने,अत्यंत सराहनीय सृजन नमन आपको।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 14, 2015 at 11:06am

आदरणीय सौरभ भाई , क्या बात है , रचना से जियादा खूबसूरत तो आपकी प्रतिक्रिया है , आप मेरी रचना को मुझसे भी जियादा अच्छे से समझ पाये  हैं  ये कहने  मे मुझे कोई संकोच नहीं है , मेरी रचना धन्य हुई ॥ आपका हृदय से आभारी हूँ ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 13, 2015 at 12:34pm

यह कविता किसी मंच के प्रति किसी सदस्य की मात्र प्रतिबद्धता साझा नहीं करती, आदरणीय गिरिराजभाईजी. कर भी नहीं सकती.

यह रचना तो उस सहेजती और पोसती हुई संज्ञा की धमनियों में बहते रक्त की आवृति की अनुगूँज है जिसका उत्साह किसी एक के सफल होने या न होने पर निर्भर नहीं करता, बल्कि सर्वसमाहिता का दायित्व ओढ़े वह संज्ञा सबकी सफलता की कामना करती चलती है. लेकिन ऐसी उदार भावनाएँ किसी एक विन्दु पर सिमट कर रह जायें तो व्यापकता का संकुचन प्रारम्भ हो जाता है. यहीं प्रकृति सचेत हो जाती है. प्रकृति ऐसी संज्ञाओं को मरने नहीं देती. तभी सर्वसमाही लोग हर काल, हर युग में जनमते हैं. मंच बनाते हैं और अपने जैसों को आकाश और भूमि देते हैं. इसी कारण, इन मंचों के माध्यम से सीखे-समझे’ हुओं से व्यापक आचरण के अनुकरण की अपेक्षा हुआ करती है. शत-प्रतिशत ऐसा संभव तो नहीं होता. लेकिन दुख तो होता ही है, जब कोई ’सीखा’ हुआ व्यक्ति असंवेदनशील हुआ लापरवाह बर्ताव करता है. साथ ही, लम्बी-लम्बी बातें करता हुआ फलांगता भी दिखता है.    

आपकी संवेदना को नमन, आदरणीय.

ओबीओ जैसा कोई मंच यदि दस लापरवाहों से दुखी होता है, तो किसी एक संकल्पित की संलग्नता से प्राणवान भी रहता है. सीखने और बरतने का संसार ऐसा ही है.
इस अत्यंत प्रभावी कविता के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ  
सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 5, 2015 at 11:17pm

आदरणीय हरि भाई , रचना के भाव स्वीकारने के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 5, 2015 at 11:14pm

आदरणीय कृष्णा भाई , रचाना के भावों को आपकी सहमति मिली , बहुत अच्छा लगा ! आपका बहुत आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 5, 2015 at 11:11pm

आदरणीय सुनील भाई , आपने सही कहा , यहाँ हम सब  आपस मे ही सीखते हैं ॥

Comment by Hari Prakash Dubey on April 5, 2015 at 7:44pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी सर, बहुत ही सुन्दर , ओ बी ओ के प्रति आपका भाव ,स्तुति करने योग्य है , सादर !

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 5, 2015 at 5:05pm

ओबीओ को समर्पित इस लाजव़ाब रचना पर आपको नमन आदरणीय!

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on April 4, 2015 at 9:37pm
सही कहा आदरणीय आपने,मै भी आप सभी से कुछ सीखने की ही आसा से आया हूँ आप सबके बीच कृपया अन्यथा या अतिशय वाली कोई बात नहीं क्षमा तो औपचारिकता है महाशय।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 4, 2015 at 12:26pm

आदरणीय सुनील भाई , माफी मांग के मुझे शर्मिन्दा न करें , सीखने- सिखाने के मंच में ये सब तो होगा ही ॥ सादर निवेदन !!

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