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नगर भी गाँव जैसा ही मुहब्बत का घराना हो
सभी के रोज अधरों पर खुशी का ही तराना हो
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बिछा लेना कहीं भी जाल जब चाहे निषादों सा
मगर जीवन में नफरत ही तुम्हारा बस निशाना हो
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है भोलापन बहुत अच्छा मगर छल भी समझ पाए
रचो जग तुम जहाँ बचपन भी इतना तो सयाना हो
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खुशी हो बाँटनी जब भी न सोचो गैर अपनों की
मगर सौ बार तुम सोचो किसी का दिल दुखाना हो
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नई तकनीक के बल पर बदलना सभ्यता लेकिन
हमेशा ध्यान रखना तुम हर इक रिश्ता पुराना हो
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रहे या मत रहे दौलत न इससे आँक खुद को तू
अमिट रिश्तों का झोली में तेरे बस इक खजाना हो
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न मन में लालसा रख तू ‘सिकंदर सा ये जग जीतूँ’
मगर गौतम के जैसा ही तुम्हारा यह जमाना हो
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है रावण नाम तेरा गर चरित को राम जैसा कर
सदा मकशद किसी की लाज को तेरा बचाना हो
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लिखा था जब सफर किस्मत में फिर कैसे ठहर जाता
भले ही दिल किसी का फिर ‘मुसाफिर’ को ठिकाना हो
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
वाह वाह आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी बहुत ही बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है
शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं
टंकण त्रुटी मकशद- को - मक़सद कर लिजियें.
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