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ग़ज़ल :- जैसे.मिरे अंदर से ख़ुदा बोल रहा है

बह्र :- मफ़ऊल मफ़ाईल मफ़ाईल फ़ऊलुन


सच बोल रहा हूँ तो ये महसूस हुवा है
जैसे मिरे अंदर से ख़ुदा बोल रहा है

समतों क तअय्युन है न मंज़िल का पता है
इंसान मशीनों की तरह भाग रहा है

ठहरे हुए पानी पे कोई नाव रुकी है
इक गीत फ़ज़ाओं में अभी गूंज रहा है

इस हद पे हैं तहज़ीब की मिटती हुई क़दरें
रिश्तों को ज़मीनों की तरह बाँट दिया है

जिस दिन से दरिन्दों की सिफ़त आई है इसमें
इंसान ख़ुद अपना ही लहू चाट रहा है

फैले हुए हाथों पे "समर" तंज़ न करना
क्या जानिये बेचारे पे क्या वक़्त पड़ा है

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on April 14, 2015 at 2:55pm
बहना राजेश कुमारी जी,आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
"सम्त" यानी "दिशा" ,"समतों" यानी दिशाओं,"तअय्युन" यानी मुक़र्रर करना ( तय करना) ,"समतों का तअय्युन" यानी दिशाओं का तय करना , आगे से मैं कठिन शब्दों का अर्थ लिख दिया करूँगा ताकि पढ़ने वालों को आसानी हो |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 14, 2015 at 10:49am

ठहरे हुए पानी पे कोई नाव रुकी है
इक गीत फ़ज़ाओं में अभी गूंज रहा है---वाह्ह्ह्ह उम्दा 

इस हद पे हैं तहज़ीब की मिटती हुई क़दरें
रिश्तों को ज़मीनों की तरह बाँट दिया है------क्या कहने लाजबाब 

आ० समर भाई जी ,शानदार ग़ज़ल हुई तहे दिल से दाद दे रही हूँ 

यदि निम्न शब्दों का अर्थ पता चले तो पढने का लुत्फ़ दुगुना हो जाएगा  

जैसे --समतों क तअय्युन ??

Comment by Samar kabeer on April 14, 2015 at 10:46am
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by Samar kabeer on April 14, 2015 at 10:44am
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by Samar kabeer on April 14, 2015 at 10:42am
जनान "जान" गोरखपुरी साहिब,आदाब,ज़र्रा नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ|
"सम्त" यानी "दिशा","समतों" यानी दिशाओं,आपने ठीक कहा आइन्दा कठिन शब्दों के अर्थ लिख दिया करूँगा |
Comment by Samar kabeer on April 14, 2015 at 10:30am
जनाब दिनेश कुमार जी,आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 14, 2015 at 8:29am

आदरणीय समर भाई , मतला खूब पसंद आया , पूरी ग़ज़ल और मतले के लिये विशेष तौर पर आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 14, 2015 at 7:37am
आदरणीय समर कबीर जी हमेशा की तरह एक बेहतरीन ग़ज़ल। दिल से दाद हाज़िर है।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 13, 2015 at 10:24pm

बेहतरीन गज़ल! मतला उम्दा!शेर दर शेर दाद हाजिर है आदरणीय समर सरजी!

फैले हुए हाथों पे "समर" तंज़ न करना
क्या जानिये बेचारे पे क्या वक़्त पड़ा है      लाजवाब मक्ते के लिए अलग से दाद कबूल फरमाए आदरणीय!

आ० समर सर एक अनुरोध है कि आपकी गजल में प्रयोग होने वाले कठिन शब्दों के अर्थ भी दे दिया करे!(ख़ासकर फ़ारसी शब्दों के) ताकि हमें समझने में आसानी रहे और शब्दकोश भी बढे!सादर! समंतो शब्द का अस्ल अर्थ नही मालूम मुझे,बस अंदाजन समझने की कोशिश की!

Comment by दिनेश कुमार on April 13, 2015 at 6:58pm
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय समर कबीर सर । लाजवाब मतला,दीगर अशआर भी बहुत प्रभावशाली। वाह वाह वाह। मुबारक सर जी।

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