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आँसुओं से भीगता है रोज अपना बिस्तरा
आपको भी दूर जाकर क्या पता है क्या मिला
एक अरसा हो गया है आपसे हमको मिले
पूछते हैं लोग फिर भी हाल हमसे आपका
खार बनकर चुभ रहे हैं फूल यादों के हमें
आपको भी मिल रही है क्या मुहब्बत की सजा
माँगने पर आजकल तो मौत भी मिलती नहीं
फिर मुहब्बत क्या मिलेगी लाजिमी है भूलना
शर्त पर करना मुहब्बत आपकी फितरत रही
खेलना मासूम दिल से और दिल को तोड़ना
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आपकी खूबसूरत प्रतिक्रिय के लिये तहेदिल से आभार प्रस्तुत करता हूँ
आँसुओं से भीगता है रोज अपना बिस्तरा
आपको भी दूर जाकर क्या पता है क्या मिला
एक अरसा हो गया है आपसे हमको मिले
पूछते हैं लोग फिर भी हाल हमसे आपका
आदरणीय उमेश कटारा जी.. इस ग़ज़ल प्रस्तुति पर आपको दिल से दाद दे रहा हूँ.
आदरणीय Hari Prakash Dubey जी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिये सादर आभार
आदरणीय वीनस केसरी जी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिये सादर आभार
अच्छी ग़ज़ल हुई है ...
दाद कुबूल फरमाएं ..
मुझे लगता है कुछ मिसरों को और रवां किया जा सकता है ...
अगर ऐसा हो तो अशआर खिल उठें ..
आ. उमेश कटारा जी , बहुत सुन्दर , बधाई सादर !
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिये सादर आभार
आओ कटारा जी
आख़री शेर ने तो जान ही ले ली . बहुत अच्छा . आदर .
आदरणीय krishna mishra 'jaan'gorakhpuriजी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिये सादर आभार
शर्त पर करना मुहब्बत आपकी फितरत रही
खेलना मासूम दिल से और दिल को तोड़ना वाह!
क्या बात है उमेश सर! गजल में शब्दों का प्रवाह देखते ही बन रह रहा है!हार्दिक बधाईयां!
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