हमारे अंदर का बनिया
सब कुच्छ बेचता है,
राम भी, कृष्ण भी,
धर्म और ईमान भी,
तीर और कमान भी.
अब उसके दुकान में
नये- नये समान हैं,
झूठाई, सपनों की मिठाई,
दंभ के साथ बढ़ती ढिठाई
ईन्हे वो रोज नई नई
जगहों पे सजाता है
ज़ोर से आवाज़ लगाता है
हिंदू हो या मुसलमान,
सिख हो या ख्रिस्तान,
उसके लिए सभी बराबर हैं.
वो बड़ी ईमानदारी से
बेईमानी बेचता हैं
दरअसल जो बिकता है
वही टिकता है.
मौलिक वा अप्रकाशित
Comment
आ. सौरभ जी, बहुत आभार. जी ध्यान रखूँगा.
सही बात जो बिकता है वही टिकता (दिखता) है.. .
शुभकामनाएँ आदरणीय ..
रचना पोस्ट करने के वक्त अक्षरी-दोषों पर भी अवश्य ध्यान रहे, आदरणीय .. .
सादर
कविता को पसंद करने के लिए -बहुत आभार श्री कृष्ण मिश्रा जी.
आभार सह धन्यवाद श्री हरी प्रकाश दूबे जी, टंकण में कृष्ण ही होना चाहिए. ठीक करने की कोशिश करता हूँ.
इस बेहतरीन कविता के लिए ढेरों बधाईयां प्रेषित है आ० विजय प्रकाश जी!
आदरणीय डॉ o विजय प्रकाश शर्मा जी, इस सुन्दर प्रयास ,सुन्दर रचना पर हार्दिक बधाई आपको सादर !
सब कुच्छ बेचता है,/// क्या यहाँ कुछ आना चाहिये ?
राम भी, क्रिस्न भी,///// कृष्ण ज्यादा सार्थक रहेगा ?.....सादर
बहुत -बहुत आभार आ. गोपाल नारायण जी.
उसके लिए सभी बराबर हैं.
वो बड़ी ईमानदारी से
बेईमानी बेचता हैं---------------------अच्छे भाव हैं . सादर .
आ० जितेंद्रा जी, विजय शंकर जी . राज कुमार जी,
आप मित्रों का बहुत आभार की आपने रचना को सराहा.
" हमारे अन्दर का बनियाँ " सुन्दर अभिव्यक्ती माननीय डा. विजय प्रकाश शर्मा जी ...साधुवाद !
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