हार जाने के डर से छिपाये हुये तर्क
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कोरी बातों से या आधे अधूरे समर्पण से
किसी भी परिवर्तन की आशायें व्यर्थ है
जब तक आत्मसमर्पण न कर दें आप
तमाम अपने छुपाये हुये हथियारों के साथ
अंदर तक कंगाल हो के
सद्यः पैदा हुये बालक जैसे , नंगा, निरीह और सरल हो के
सत्य के सामने या
वांछित बदलाव के सामने
आपके सारे अब तक के अर्जित ज्ञान ही तो
हथियार हैं आपके
वही तो सुझाते हैं आपको तर्क – कुतर्क
अपने पक्ष में
हर शुभ बदलाव के विरुद्ध
जो तर्क सामने आते हैं
सत्य रूपी ब्रम्हास्त्र से हार जाते हैं , जो स्वाभाविक है
आप घबरा के हो जाते हैं मौन , बाक़ी हथियार छुपाये , तात्कालिक मौन
केवल बाहरी तौर पर मौन
ऐसे , जैस कि आप हार चुके हों
सब कुछ , पर
बचा ले जाते हैं आप अपने थोथे तर्क
छिपा कर , अपने अंदर कहीं
वो तर्क जो कंगाल हो जाने के भय से नहीं निकाले गये
सत्य के सामने
वो तर्क जिन्हें रोप के आप पैदा कर लेंगे
हज़ारों और बेहूदे तर्क
ठीक वैसे ही, जैसे बचाया जाता है जामन
दही के लिये , मटकी में
फिर कोई कितना भी अमृत – दूध डाले
मटकी में छिपा- बचा हुआ जामन
बना देता है उसे
रातों रात फिर से दही
आप होशियार हैं
कभी भी नहीं धोते आप मटकी को ऐसा / इतना
कि , न बच पाये जामन , रंच मात्र भी
क्यों कि , आपको दही से प्यार जो है ॥
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय मिथिलेश भाई , रचना की सराहना के लिये आपका दिली शुक्रिया ॥
आदरणीय गिरिराज सर, इस शानदार कविता की प्रस्तुति पर विलम्ब से उपस्थित हो पाया, देखता हूँ शब्दों का जादू हो गया है, दर्शन करामात दिखा रहा है, मन चकित है, आप बस कमाल है, नमन इस प्रस्तुति पर
आदरणीय समर कबीर भाई , आप अतुकांत रचनायें भी देखते रहे हैं जान कर खुशी हुई , आपका आभारी हूँ ।\
आदरणीय श्री सुनील भाई , रचना से आपको संतुष्ट देख कर आत्मिक खुशी हुई , कुछ सहेजने लायक कहना रचना कार को और अच्छा करने के लिये उत्साहित कर रहा है । आपका हृदय से आभारी हूँ ॥
आदरणीय वीनस भाई , आपकी उपस्थिति से रचना गौरवांवित हो गई , सराहना के लिये आपका बहुत बहुत आभार ॥
इस शानदार कविता के लिए हार्दिक बधाई ...
आदरणीय कृष्णा भाई , रचना की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥
वो तर्क जिन्हें रोप के आप पैदा कर लेंगे
हज़ारों और बेहूदे तर्क
ठीक वैसे ही, जैसे बचाया जाता है जामन
दही के लिये , मटकी में ये पंक्तियाँ तो काट गई सीने को,लाजव़ाब!
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