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अब और सब्र का तू मेरे इम्तिहाँ न ले
मेरी ज़मीं न छीन मेरा आसमाँ न ले
है मुख़्तसर ज़मीन तमन्नाओं की फ़क़त
ऐ बेरहम नसीब यूँ मेरा जहाँ न ले
कम रख ज़रा तू अपनी रवानी को ऐ हवा
इतना रहम तो कर कि मेरा आशियाँ न ले
जज़्बात से न बाँध मुझे ऐसे हमनशीं
मत रोक लफ़्ज़ मेरे यूँ मेरी ज़बाँ न ले
कायम है कायनात शजर के वुजूद से
खुद को ही बेवुजूद न कर अपनी जाँ न ले
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ सर रचना पर आपकी उपस्थिति हमेशा ही उत्साहित करती है, आपका तहेदिल से शुक्रिया
शिज्जू भाई.. मैं मतले पर झूम-झूम रहा हूँ.
वैसे तो पूरी ग़ज़ल कमाल की हुई है लेकिन इन दो शेरों को विशेष तौर पर उद्धृत कर रहा हूँ -
कम रख ज़रा तू अपनी रवानी को ऐ हवा
इतना रहम तो कर कि मेरा आशियाँ न ले
जज़्बात से न बाँध मुझे ऐसे हमनशीं
मत रोक लफ़्ज़ मेरे यूँ मेरी ज़बाँ न ले
दिल से दाद कुबूल कीजिये..
मेरी रचना आप लोगों ने समय दिया सराहा, आपकी इन नवाज़िशों से मेरा हौसला बढ़ा है आप सभी का मैं तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ और ये उम्मीद करता हूँ आप सभी का स्नेह ऐसे ही मिलता रहेगा
आदरणीय शिज्जू भाई
मतले से ही आपने रफ़्तार पकड़ ली और अंत तक बस मजा आ गया . आपका एक और करिश्मा. सादर .
आदरणीय शिज्जु भाई , पूरी ग़ज़ल बेमिसाल अशआर से सजी है , पूरी गज़ल के लिये दिली मुबारक बाद कुबूल करें ॥
आदरणीय शिज्जू जी ..आनंद आ गया ..इस सफल सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सादर
ख़ूबसूरत अश’आर हुए हैं शिज्जू जी, दाद कुबूल करें।
वाह! शानदार गजल कही आदरणीय शिज्जू जी.
कम रख ज़रा तू अपनी रवानी को ऐ हवा
इतना रहम तो कर कि मेरा आशियाँ न ले.......क्या बात है ,सर जी. विशेष बधाई स्वीकारें
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