२१२/ २१२/ २१२/ २१२// २१२/ २१२/ २१२/ २१२
हर तरफ भागती दौडती ज़िन्दगी बेसबब घूमती इक घड़ी की तरह
हमसफ़र है वही और राहें वही, मंज़िले हैं मगर अजनबी की तरह.
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आज के बीज से उगते कल के लिए मुझ को जाना पड़ेगा तुम्हे छोड़कर
तुम भी गुमसुम सी हो मैं भी ख़ामोश हूँ लम्हा लम्हा लगे है सदी की तरह
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श्याम की संगिनी बाँसुरी ही रही, प्रीत की रीत भी आज तक है यही
कर्म की राह ने प्रेम को तज दिया, राधिका रह गयी बावरी की तरह.
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ये अलग बात है उनसे बिछड़े हुए जाने कितने बरस हो गए हैं मगर
ज़ह’न में याद उनकी हमेशा रही ख़ुशबुओं की तरह गुदगुदी की तरह.
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सुब’ह से शाम तक शाम से रात तक खेल चलता रहा हम भी चलते रहे
थक गए गिर पड़े उठ के चलने लगे ज़िन्दगी कट गयी नौकरी की तरह
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बाल पकने लगे झुर्रियाँ पड़ गयी मैं बदल सा गया वो बदल सी गयी
पर मेरी याद की डायरी में कहीं आज भी दर्ज है षोडशी की तरह.
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बात वो मेरी कोई भी सुनता नहीं आह उस तक मेरी कोई पहुँची नहीं
क्या ख़ुदा इस जहाँ में रहा ही नहीं या ख़ुदा भी हुआ आदमी की तरह.
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नूर
मौलिक अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. जान गोरखपुरी साहब
वाह निलेश सर! लाजव़ाब गजल हुयी है!शेर दर शेर कमाल किया है आपने,मंत्रमुग्ध हूँ मै हर शेर पे!
शुक्रिया आ. राजेश कुमारी जी.
आप जैसी वरिष्ठ ग़ज़लकारा से दाद पाकर उत्साहित हूँ. आपके सुझाव पर विचार करता हूँ.
दरअसल इसी प्रकार में मार्गदर्शन के लिए हम सब यहाँ अपनी रचनाएं पोस्ट करते हैं.
आपका बहुत बहुत आभार
सादर
वाह वाह निलेश जी ,इस ग़ज़ल ने तो मन मोह लिया जितनी तारीफ की जाए कम होगी सभी शेर कमाल के हुए
बाल पकने लगे झुर्रियाँ पड़ गयी मैं बदल सा गया वो बदल सी गयी
पर मेरी याद की डायरी में कहीं आज भी दर्ज है षोडशी की तरह.---इस शेर पर बार बार दाद लीजिये
बात वो मेरी कोई भी सुनता नहीं आह उस तक मेरी कोई पहुँची नहीं-----इस मिसरे को इस तरह लिख कर देखिये प्रवाह में फर्क महसूस होगा ----बात मेरी कोई भी वो सुनता नहीं आह उस तक मेरी कोई पहुँची नहीं
क्या ख़ुदा इस जहाँ में रहा ही नहीं या ख़ुदा भी हुआ आदमी की तरह.
दिली बधाई लीजिये इस शानदार ग़ज़ल पर
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शुक्रिया आ. समर कबीर साहब..
दुरुस्त कर दिया.
सादर
//मेरे टाइपिंग टूल में ज़ह्न टाइप नहीं हो रहा था अत: ज़ह'न लिखना पड़ा. ( ' ) सिर्फ वज़'न बताने के लिए लगाया है.//
हुज़ूर, आपने ज़ह्न को ज़हन की तरह निभाया है.. ;-))
हमने इसे मार्क कर लिया था. लेकिन ये आपका ’नया अंदाज़’ है, समझ कर भी हम भी मज़ा ले रहे थे.. अब आप पलटी मार रहे हैं.. दादा, एइ तो चोलबे ना.... हा हा हा..
शुक्रिया आ. विजय जी
शुक्रिया आ. समर कबीर साहब. आपकी दाद से अभिभूत हूँ ..मेरे टाइपिंग टूल में ज़ह्न टाइप नहीं हो रहा था अत: ज़ह'न लिखना पड़ा. ( ' ) सिर्फ वज़'न बताने के लिए लगाया है.
सादर
बहुत ही खूबसूरत गज़ल। हार्दिक बधाई।
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