जानवर होने का नाटक भूँक भूँक के
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जंगल में
जानवरों में फँसा हुआ मैं
जानवर ही लगता हूँ , व्यवहार से
पहनी नज़र में
ऐसा व्यवहार सीख लिया है मैनें
जिससे इंसानियत शर्मशार भी न हो
और जानवर भी लग जाऊँ थोड़ा बहुत
लगना ही पड़ता है , अल्पमत में हूँ न ,
और काम बाक़ी है , एक बड़ा काम
मुझे तलाश है इंसानों की
जो छुप गये लगते हैं , भय से ,
जानवरों में एकता जो है , बँटे हुये इंसान का डर भी स्वाभाविक है
कुछ ने तो नस्ल परिवर्तन भी करा लिया है
कहाँ और कैसे खोजूँ , कैसे एक साथ कर लूँ इंसानो को ?
काम भारी है , खोज लूँ तो बहुमत हो जाये , इंसानो का
क्योंकि , गिनती मे कम नहीं हैं हम , बँट गये हैं
मैं उनके सामनें ,
जो, सच न सहन कर सकें , पचा न सकें
सच ज़ाहिर करना सही नहीं समझता
और न ही
मैं ज़हर पीने वालों मे से नहीं हूँ
पिलाऊँगा उनको
जो हक़दार हैं ज़हर के
मै हक़ को हक़दार तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है
बस , साधन मेरा अपना होगा , तरीका मेरा अपना होगा
और समय, जितना लगे , या जीते जी
तुमने मेरे भूँकने , दहाड़ने , चिंघाड़ने ,
मिमियाने से ,
मुझे जानवर समझ कर कुछ गलत नहीं किया
ये तो तमगा है
मेरे असली जैसे नकली पन के लिये
तब तक के लिये ,
जब तक इंसान बहुमत में न आ जायें
और किसी को न करना पड़े कभी भी
जानवर होने का नाटक
भूँक भूँक के
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय श्री सुनील भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ॥
आदरणीय समर कबीर भाई , रचना के अनुमोदन के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।
मै हक़ को हक़दार तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है
बस , साधन मेरा अपना होगा , तरीका मेरा अपना होगा
और समय, जितना लगे , या जीते जी.....गजब की कलम चलाई ,सर आपने. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
बहुत बढ़िया प्रस्तुति एक सन्देश देती हुई ...बधाई जनाब ...सादर
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