“सुनो! कितनी अच्छी हो तुम, कितना प्रेम है तुम्हारे पास मेरे लिए. मेरा शादी-सुदा होना भी तुमने अपनी गहराइयों से स्वीकार लिया है. कुछ कहो न!, ऐसा क्या है मुझमे..?”
“ मुझे, तुमसे सब कुछ मिल रहा है जो किसी से शादी के बाद जो मिलता. और मैं तुमसे अपनी मर्जी तक सम्बन्ध बनाये रख सकती हूँ, क्यूंकि तुम शादी-शुदा होने के कारण, समाज अपने परिवार और क़ानून के डर से मुझसे जबरदस्ती नहीं कर सकते. नहीं तो आजकल के बेचलर...तौबा-तौबा “
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय जितेन्द्र जी आपकी बेहतरीन लघुकथाएं पढ़ चुका हूँ.
इस लघुकथा को पढ़कर भी कमेन्ट नहीं कर रहा था लेकिन इस संशोधन के बाद बात थोड़ी खुली है.
इस नई आधुनिक मानसिकता के चित्रण में थोड़ी और सघनता की गुंजाइश लग रही है. यद्यपि लघुकथा के शिल्प को बिलकुल नहीं समझ पाया हूँ लेकिन एक पाठक के रूप में मुझे गुंजाइश लग रही है. सादर
आदरणीय कृष्णा जी. आपकी गहन प्रतिक्रिया व् लघुकथा की सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार.
सादर!
आदरणीय लक्ष्मण जी. सर्वप्रथम लघुकथा पर आपके स्नेहिल मार्गदर्शन का हार्दिक आभार. आपकी प्रतिक्रिया //आखिर शादी सुदा होने पर भी अन्य से रिश्ता रखने पर बदनामी का डर क्यों नहीं// व् सुझाव अनुसार मैंने लघुकथा में संशोधन किया है, जिसमे स्पस्टीकरण की पूर्ण कोशिश की है.
सादर!
आदरणीय डा. विजय जी. लघुकथा पर प्रोत्साहन हेतु आपका हार्दिक आभार
सादर!
आ० जितेन्द्र भाई लघुकथा का शीर्षक और बेहतर होना चाहिए था...जो विषय से सीधे तौर पे कनेक्ट हो!!
//क्यूंकि तुम शादी-शुदा होने के कारण, समाज अपने परिवार और क़ानून के डर से मुझसे जबरदस्ती नहीं कर सकते//
''जब तक चाहो जुड़े रहो,अपने मनमाफिक संबंध तोड़ दो,और इस बाबत शादी-शुदा होने के कारण को प्रपंच न कर सके या दबाव न डाल सके'' यानी पूर्ण स्वतंत्रता''....आधुनिक सोच में ढलते रिश्तों! बहुत ख़ूब जितेन्द्र भाई! हार्दिक बधाई
इस अच्छी लघु कथा के लिए बधाई, आदरणीय |
रचना पर लेखक का स्पष्टीकरण किये बगैर पाठक को कहानी समझ आ जाए तभी वह सार्थक लघु कथा है | इस लघु कथा को पढ़कर
यह स्पष्ट नहीं हो रहा की आखिर शादी सुदा होने पर भी अन्य से रिश्ता रखने पर बदनामी का डर क्यों नहीं | सादर
/ मुझे तुम्हारे कारण बदनामी का कोई डर भी नही, जो हर लड़की को किसी बेचलर के साथ रहता है...” / मैं समझ नहीं पाया आदरणीय जितेन्द्र भाई की विवाहित व्यक्ित से नाजायज संबंध होने पर बदनामी का डर क्यों नहीं है ? कथा कुछ अस्पष्ट सी लग रही है भाई । शीर्षक भी प्रभावशाली नहीं लगाा । आपसे तो इससे बहुत ज्यादा की अपेक्षाएं हैं भाई जी ।
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