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ग़ज़ल -- चराग़ किसका जला हुआ है - ( ग़िरिराज भंडारी )

121  22     121  22        121  22   121  22

 

ये कैसी महफिल में आ गया हूँ , हरेक इंसा , डरा हुआ है 

सभी की आँखों में पट्टियाँ हैं , ज़बाँ पे ताला जड़ा हुआ है

 

कहीं पे चीखें सुनाई देतीं , कहीं पे जलसा सजा हुआ है

कहीं पे रौशन है रात दिन सा , कहीं अँधेरा अड़ा हुआ है

 

ये आन्धियाँ भी बड़ी गज़ब थीं , तमाम बस्ती उजड़ गई पर  

दरे ख़ुदा में झुका जो  तिनका , वो देखो अब भी बचा हुआ है 

 

हरेक बज़्में तरब के कारण , न जाने कितनी ग़मी है यारों  

उठा हुआ है जो आसमाँ तक ,   किसी गदा पर ख़ड़ा हुआ है

 

यहाँ हवाओं की खुश्बुओं में , क्यों याद आयी , मेरी ज़मीं की

ज़रा सा खोदो तो इस ज़मीं को , कहीं पे माज़ी गड़ा हुआ है

 

जहाँ पे मुद्दत की प्यास चुप है , वहाँ बग़ावत सुलग न जाये  

के अब हथेली बने न मुठ्ठी , डर एक उनको बना हुआ है

 

अजब अँधेरे में इस फ़ज़ा के , ये रोशनी सी कहाँ से आई

ये रूह किसकी हुई है रोशन , चराग़ किसका जला हुआ है

*******************************************************

 मौलिक एवँ अप्रकाशित 

 

 

 

 

 

 

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 7, 2015 at 8:47am

आदरणीय वीनस भाई , गज़ल पर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया देख बहुत खुशी हुई । कुछ शे र आपको संतुष्ट कर पाये तो मेरी गज़ल कहना सार्थक हुआ ॥ 

1 - उठा हुआ है जो आसमाँ तक ,   किसी गदा पर ख़ड़ा हुआ है  -- मेरी समझ मे मै ये कहना चाहता था कि खुशियों की महफिल की ये जगमगाती खुशियाँ किसी न किसी को ग़रीब बना के मिली हुई है , लेकिन आपकी प्रतिक्रिया बता रही है वो मै कह नही पाया । इसलिये इस शे र को अब ऐसा कर रहा हूँ  - 

हरेक बज़्में तरब के कारण , न जाने कितनी ग़मी है यारों  

किसी की महफिल को जगमगाने , कहीं अँध्रेरा बड़ा हुआ है  --  सही कह पाया क्या बताइयेगा 

2 -  खोदो - शब्द हटा के इस शे र को ऐसे कर रहा हूँ  - 

यहाँ हवाओं की खुश्बुओं में , क्यों याद आयी , मेरी ज़मीं की

चल आ तो खोजें इसी ज़मी में , कहीं पे माजी छुपा हुआ है   --  आशा है अब  सही कर पाया होऊँगा  -  बताइयेगा ज़रूर । 

आपकी उचित सलाहों के लिये हृदय से आभारी हूँ ।

Comment by वीनस केसरी on May 7, 2015 at 1:44am

 

ये कैसी महफिल में आ गया हूँ , हरेक इंसा , डरा हुआ है 

सभी की आँखों में पट्टियाँ हैं , ज़बाँ पे ताला जड़ा हुआ है............ वाह वा

 

कहीं पे चीखें सुनाई देतीं , कहीं पे जलसा सजा हुआ है

कहीं पे रौशन है रात दिन सा , कहीं अँधेरा अड़ा हुआ है........ बहुत बढ़िया

 

ये आन्धियाँ भी बड़ी गज़ब थीं , तमाम बस्ती उजड़ गई पर  

दरे ख़ुदा में झुका जो  तिनका , वो देखो अब भी बचा हुआ है ......... कहन पुरानी है बढ़िया निभाया है

 

हरेक बज़्में तरब के कारण , न जाने कितनी ग़मी है यारों  

उठा हुआ है जो आसमाँ तक ,   किसी गदा पर ख़ड़ा हुआ है............ इस शेर का अर्थ स्पष्ट करें

 

यहाँ हवाओं की खुश्बुओं में , क्यों याद आयी , मेरी ज़मीं की

ज़रा सा खोदो तो इस ज़मीं को , कहीं पे माज़ी गड़ा हुआ है................ शेर तो बढ़िया है खोदो शब्द बदमजगी पैदा कर रहा है

 

जहाँ पे मुद्दत की प्यास चुप है , वहाँ बग़ावत सुलग न जाये  

के अब हथेली बने न मुठ्ठी , डर एक उनको बना हुआ है .................बढ़िया कहा

 

अजब अँधेरे में इस फ़ज़ा के , ये रोशनी सी कहाँ से आई

ये रूह किसकी हुई है रोशन , चराग़ किसका जला हुआ है .............. हासिले ग़ज़ल


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 6, 2015 at 9:50pm

आदरणीय विजय भाई , ग़ज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभारी  हूँ ॥

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 6, 2015 at 9:42pm
हर आदमी सब कुछ देख रहा है,
समझ रहा है , ये क्या आलम है ,
बोलने के नाम पर बिल्कुल मौन है ,
मुँह पे कौन सा ताला जड़ा हुआ है ॥
फिलहाल हालत तो यही हैं , आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, बहुत सही प्रस्तुति, बधाई, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 6, 2015 at 8:26pm

आदरणीय दिनेश भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥

Comment by दिनेश कुमार on May 6, 2015 at 8:19pm
बहुत खूब आदरणीय, वाह वाह वाह। बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारकबाद।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 6, 2015 at 7:59pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , गज़ल की सराहना और विस्तृत प्रतिक्रिया के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 6, 2015 at 5:28pm

वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह 

आदरणीय गिरिराज सर इस सुरीली बह्र में बहुत ही शानदार ग़ज़ल प्रस्तुत की है..... कमाल के अशआर निकाले है.....

शानदार मतला से शुरू होते हुए हुस्ने-मतला और अशआर सब एक से बढकर एक ....

बस कमाल ही कमाल 

सभी अशआर इतने कमाल है कि किसी एक को कोट करना दुसरे का अपमान होगा इसलिए शेर दर शेर एक बार और झूम के वाह कह रहा हूँ-

ये कैसी महफिल में आ गया हूँ , हरेक इंसा , डरा हुआ है 

सभी की आँखों में पट्टियाँ हैं , ज़बाँ पे ताला जड़ा हुआ है.......................वाह वाह 

 

कहीं पे चीखें सुनाई देतीं , कहीं पे जलसा सजा हुआ है

कहीं पे रौशन है रात दिन सा , कहीं अँधेरा अड़ा हुआ है...................वाह वाह 

 

ये आन्धियाँ भी बड़ी गज़ब थीं , तमाम बस्ती उजड़ गई पर  

दरे ख़ुदा में झुका जो  तिनका , वो देखो अब भी बचा हुआ है ...................वाह वाह 

 

हरेक बज़्में तरब के कारण , न जाने कितनी ग़मी है यारों  

उठा हुआ है जो आसमाँ तक ,   किसी गदा पर ख़ड़ा हुआ है...................वाह वाह 

 

यहाँ हवाओं की खुश्बुओं में , क्यों याद आयी , मेरी ज़मीं की

ज़रा सा खोदो तो इस ज़मीं को , कहीं पे माज़ी गड़ा हुआ है...................वाह वाह 

 

जहाँ पे मुद्दत की प्यास चुप है , वहाँ बग़ावत सुलग न जाये  

के अब हथेली बने न मुठ्ठी , डर एक उनको बना हुआ है...................वाह वाह 

 

अजब अँधेरे में इस फ़ज़ा के , ये रोशनी सी कहाँ से आई

ये रूह किसकी हुई है रोशन , चराग़ किसका जला हुआ है...................वाह वाह 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 6, 2015 at 3:36pm

अच्छे अश’आर हुए हैं आ. गिरिराज जी, दाद कुबूल कीजिए


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 6, 2015 at 11:43am

आदरनीय सुरेन्द्र ' भ्रमर ' भाई आपका बहुत बहुत आभार ।

कृपया ध्यान दे...

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