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ग़ज़ल ; यकायक चराग़ों को क्या हो गया है

122 122 122 122

यकायक चराग़ों को क्या हो गया है
बुझे थे, जले फिर, ये किसकी दुआ है.

चलो और दिन तो है बाकी, रूकें क्यों
शजर पे अभी नूर देखो झुका है.

इसी आरज़ू में कटी ज़िन्दगी ये
पता तो चले क्या हमारा हुआ है.

अभी छू नहीं सर्द हांथों से ऐ शब
अभी तो मुझे उसने मन से छुअा है.

मुहब्बत किसे रास आई है इसमें
अमीरी, ग़रीबी, ज़माना, जुआ है.

- श्री सुनील

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by shree suneel on May 15, 2015 at 11:24am
शुक्रिया आदरणीय समर कबीर सर, एक समाधान चाहता हूं आदरणीय. क्या 'शुआ' लफ्ज़ सही होगा काफिया में. एक टिप्पणी में मैंने विस्तार से बताया है इसपर. कृपया इस बिन्दु पे मार्गदर्शन करें. सादर.
Comment by shree suneel on May 15, 2015 at 11:10am
उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद आदरणीय मिथलेश वामनकर सर. त्रुटि मेरी नज़र में है. एक टिप्पणी में मैंने एक शंका - समाधान चाहा भी है, मार्गदर्शन अपेक्षित है. सादर.
Comment by shree suneel on May 15, 2015 at 10:57am
सराहना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय आशुतोष जी.
Comment by shree suneel on May 15, 2015 at 10:56am
शुक्रिया.. कृष्ण मिश्रा जी.
Comment by Samar kabeer on May 15, 2015 at 10:49am
जनाब श्री सुनील जी ,आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं।

जनाब मिथिलेश जी की बात पर ध्यान दीजियेगा ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 15, 2015 at 1:58am

आदरणीय सुनील जी इस प्रस्तुति के लिए बहुत बधाई 

आप काफिया दुरुस्त कर ले तो बेहतरीन ग़ज़ल तैयार है.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 14, 2015 at 9:46pm

आदरणीय सुनील जी इस बेहतरीन रचना के लिए ढेर सारी दाद क़ुबूल करें सादर 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 14, 2015 at 2:31pm

सुन्दर प्रयास बधाई आदरणीय सुनील जी! गजल के शेर खिलकर सामने नही आ रहें है,समय के साथ धीरे-धीरे निखार आता जायेगा!शुभकामनाएं!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 14, 2015 at 1:57pm

झुका वाला शेर बदल लें तो भी बात बन जाएगी ..और बेहतर बनेगी 

Comment by shree suneel on May 14, 2015 at 1:08pm
आदरणीय नदीम जी, सराहना के लिए धन्यवाद. त्रुटि दूर करने की कोशिश करता हूँ.

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