*मैं वह और तुम*
मैं पुरुष हूँ,
वह स्त्री,
तुम तुम हो--
श्रोता,पाठक, निर्णायक
सबकुछ।
मैंने उसे अपने को कहने
यानी लिखने के लिए
प्रेरित करना चाहा,
अपना युग-धर्म निबाहा,
बोली-मुझे हिंदी में लिखना
नहीं आता,है मुझे सीखना।
'सीखा दूँगा सब', मैंने कहा,
मामला बस वहीं तक रहा।
एक दिन एक कथा आयी-
'मेरी सहेली ने ड्राइविंग
सीखना चाहा,
उसके बॉस ने हामी भर दी,
कहा, 'सीखा दूँगा सब',
फिर ड्राइविंग शुरू होती
कि उसने अपनी हथेली
सहेली की स्टीयरिंग पर
पड़ी हथेली पर धर दी,
पहेली उलझने लगी,
सहेली समझने लगी
मतलब 'सीखा दूँगा' का,
'बदले कुछ न लूँगा',का।
बोली-सर, आपकी बेटी
मेरी हमउम्र सहेली है,
वह भी सीखती आपसे
ड्राइविंग ऐसे अकेली है?
यह क्या?
लगा बॉस रूठ गया,
हथेली से हाथ उठ गया।
उस (वह) ने जोड़ा-
जैसे पड़ा हो तमाचा चटाक,
बॉस के उड़े होंगे होशोहवाश,
मैं(पुरुष) तो बस था अवाक।
मैंने उसे लिखने की शह दी,
हालाँकि वह लिखना जानती थी,
हाँ,मैं नहीं जानता था कि वह
जानती थी लिखना,अपनी तरह।
मैं लगा सोचने-
नारी का मुखर होना जरुरी है,
मौन,
मुँह सिये रहना नहीं मजबूरी है,
पर क्या यह नारी का मुखर होना है
या मुखर है उसका आवरण?
आशंकाजनित वह कठोर आवरण
जो उसे खुलने नहीं देता,
खुली हवा में खिलने नहीं देता,
वह घिर जाती है
अपने आशंकजन्य किले में,
दरवाजे-खिड़की बंदकर,
जैसे घोंघा समेट लेता है
अपनी विस्फारित दुनिया
जरा-सी हवा की आशंका से भी
गुमेट लेता है अपना सबकुछ
अपने अंदर,बस अपने अंदर।
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन
Comment
आदरणीय मिश्राजी,समर जी,हरिभाई,गिरिराज भाई,जितेंद्र जी!आभार आपका। हरि भाई, इस कविता पर अबकी कविताओं की छाप है, पर लयात्मकता कायम रखने का प्रयास जरूर मैंने किया है।
सुंदर प्रस्तुति आदरणीय मनन जी. बधाई . आदरणीय हरिप्रकाश जी से सहमत हूँ
सादर!
आ. मनन भाई , अच्छी लगी आपकी रचना , हार्दिक बधाई ।
''नारी का मुखर होना जरुरी है'' सुन्दर रचना पर बधाई आदरणीय मनन जी!
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