जब बातों में आ जाता हूँ।
तब मैं धोखा खा जाता हूँ,
तू नैनों में बसती हरदम,
तेरी पलकें छा जाता हूँ।
मेरी जां तू कह देती है,
तुझपे जां लु'टा जाता हूँ।
बज़मे-बेदिल से मैं भी तो,
देखो अब रुठा जाता हूँ।
तुझको सहरा फरमाते लेे
फिर मैं अब बु'झा जाता हूँ।
दीया जलने दे जानेमन,
शब तेरी अब उ'ड़ा जाता हूँ।
जल-जल कर जलता दीया हूँ,
तम पी हर दिश छा जाता हूँ।
'मौलिकव अप्रकाशित' @मनन
'=मात्रा का उत्थान/पतन
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आदरणीय बागीजी, योगराज जी व ओपेनबूक ऑनलाइन परिवार को मेरे काव्य-संग्रह 'इंद्र्धानुष' को पुस्तक विज्ञापन योजना में शामिल कर विज्ञापित करने हेतु शतशः साधुवाद!
आदरणीय गोपाल भाई,श्याम भाई,वीनस जी,मिश्रा जी,समर जी,मिथिलेश जी,मुकेश जी, गिरिराज भाई!आपका आभार।
आदरणीय मनन भाई , गज़ल का प्रयास बहुत अच्छा किया है , हार्दिक बधाई ।
आपने बह्र नही लिखा है , बस यही कह सकता हूँ कि सभी मिसरे एक ही बहर में नहीं लग रहे हैं , इस मंच की परम्परा के अनुसार बहर लिख दिया की जिये ताकि सीखने वालों को सरलता हूम ।
pyaree rachnaa - badhaee mtira
सुन्दर प्रस्तुति बधाई
आ० मनन जी सुन्दर प्रयास पर बधाई!
सुन्दर प्रयास है ...
सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर |
अच्छा प्रयास है भाई
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