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कभी इक तवील सी राह में लगी धूप सी मुझे ज़िन्दगी
कभी शबनमी सी मिली सहर जिसे देख के मिली ताज़गी
कभी शब मिली सजी चाँदनी , रहा चाँद का भी उजास, पर
कभी एक बेवा की ज़िन्दगी सी रही है रात में सादगी
कभी हसरतों के महल बने, कभी ख़ंडरों का था सिलसिला
कभी मंज़िलें मिली सामने , कभी चार सू मिली ख़स्तगी
कभी यार भी लगे गैर से , कभी दुश्मनों से वफ़ा मिली
कभी रोशनी चुभी बे क़दर , तो दवा बनी मेरी तीरगी
कभी दुश्मनों की तरह मुझे, मेरे रास्ते गड़े खार बन
हुये मीत जब वही रास्ते , वहीं मखमली सी छुवन जगी
कभी पी लिया मै ने ज़ह्र भी , कभी आबे जम भी हटा दिया
कभी ज़िन्दगी लगी ग़ैर सी , कभी मौत मुझको सगी लगी
मै भी जी रहा हूँ ये कह सकूँ , मेरी कोशिशें तो रहीं मगर
कभी भूख में न थीं रोटियाँ , मिला आब जब न थी तिश्नगी
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
बहुत खूब
सहर स्त्रीलिंगी है ..मिला सहर असहज प्रतीत हो रहा है.
रहा चाँद का भी उजास पर यहाँ पर ..लेकिन की जगह पंख वाले पर की अनुभूती दे रहा है
कभी मित्र भी लगे शत्रु से ,..कभी यार भी लगे ग़ैर से
गड़े ..चुभे
कभी मौत भी थी सगी लगी- कभी मौत मुझ को सगी लगी
अपनी सीमित समझ के अनुसार कुछ सुझाव देने का दु: साहस किया है. आशा है आप अन्यथा न लेंगे
सादर
आदरणीय कृष्णा भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ॥
कभी मित्र भी लगे शत्रु से , कभी दुश्मनों से वफ़ा मिली
कभी रोशनी चुभी बे क़दर , तो दवा बनी मेरी तीरगी वाह! वाह! वाह!
कभी पी लिया मै ने ज़ह्र भी , कभी आबे जम भी हटा दिया
कभी ज़िन्दगी लगी ग़ैर सी , कभी मौत भी थी सगी लगी लाजव़ाब!
बेहतरीन गजल हुयी है आ० गिरिराज सर! अभिनन्दन!
आदरणीय श्याम नारायण भाई , गज़ल की साराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया ॥
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर |
आदरणीय हरि प्रकाश भाई , आपका बहुत बहुत आभार ।
कभी हसरतों के महल बने, कभी ख़ंडरों का था सिलसिला
कभी मंज़िलें मिली सामने , कभी चार सू मिली ख़स्तगी......बहुत शानदार ,हार्दिक बधाई इस सम्पूर्ण रचना पर आदरणीय गिरिराज सर ! सादर
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