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ग़ज़ल - लगी धूप सी मुझे ज़िन्दगी ( गिरिराज भंडारी )

11212   11212  11212   11212 

 

कभी इक तवील सी राह में लगी धूप सी  मुझे ज़िन्दगी

कभी शबनमी सी मिली सहर जिसे देख के मिली ताज़गी

 

कभी शब मिली सजी चाँदनी , रहा चाँद का भी उजास,  पर  

कभी एक बेवा की ज़िन्दगी सी रही है रात में सादगी

 

कभी हसरतों के महल बने, कभी ख़ंडरों का था सिलसिला  

कभी मंज़िलें मिली सामने , कभी चार सू मिली ख़स्तगी

 

कभी यार भी लगे गैर से , कभी दुश्मनों से वफ़ा मिली

कभी रोशनी चुभी बे क़दर , तो दवा बनी मेरी तीरगी

 

कभी दुश्मनों की तरह मुझे, मेरे रास्ते गड़े खार बन  

हुये मीत जब वही रास्ते , वहीं मखमली सी छुवन जगी

 

कभी पी लिया मै ने ज़ह्र भी , कभी आबे जम भी हटा दिया

कभी ज़िन्दगी लगी ग़ैर सी , कभी मौत मुझको सगी लगी

 

मै भी जी रहा हूँ ये कह सकूँ , मेरी कोशिशें तो रहीं मगर

कभी भूख में न थीं रोटियाँ , मिला आब जब न थी तिश्नगी  

**********************************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 16, 2015 at 3:36pm

बहुत खूब 
सहर स्त्रीलिंगी है ..मिला सहर असहज प्रतीत हो रहा है. 
रहा चाँद का भी उजास पर  यहाँ पर ..लेकिन की जगह पंख वाले पर की अनुभूती दे रहा है 
कभी मित्र भी लगे शत्रु से ,..कभी यार भी लगे ग़ैर से 
गड़े ..चुभे 

कभी मौत भी थी सगी लगी- कभी मौत मुझ को सगी लगी

अपनी सीमित समझ के अनुसार कुछ सुझाव देने का दु: साहस किया है. आशा है आप अन्यथा न लेंगे 
सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 16, 2015 at 11:20am

आदरणीय कृष्णा भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ॥

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 16, 2015 at 11:16am

कभी मित्र भी लगे शत्रु से , कभी दुश्मनों से वफ़ा मिली

कभी रोशनी चुभी बे क़दर , तो दवा बनी मेरी तीरगी            वाह! वाह! वाह!

कभी पी लिया मै ने ज़ह्र भी , कभी आबे जम भी हटा दिया

कभी ज़िन्दगी लगी ग़ैर सी , कभी मौत भी थी सगी लगी        लाजव़ाब!

बेहतरीन गजल हुयी है आ० गिरिराज सर! अभिनन्दन!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 16, 2015 at 11:11am

आदरणीय श्याम नारायण भाई , गज़ल की साराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया ॥

Comment by Shyam Narain Verma on May 16, 2015 at 11:02am
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर 

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 16, 2015 at 10:25am

आदरणीय हरि प्रकाश भाई , आपका बहुत बहुत आभार ।

Comment by Hari Prakash Dubey on May 16, 2015 at 10:06am

कभी हसरतों के महल बने, कभी ख़ंडरों का था सिलसिला  

कभी मंज़िलें मिली सामने , कभी चार सू मिली ख़स्तगी......बहुत शानदार  ,हार्दिक बधाई इस सम्पूर्ण रचना पर आदरणीय  गिरिराज  सर  ! सादर  

कृपया ध्यान दे...

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