रोक नदिया
तोड़ पर्वत
तू धरा को क्या बनाता
पूछता है , अब विधाता
देख कुल्हाड़ी चलाता
कौन अपने पाँव में ही
कंटकों के बीज बोता
रास्तों में , गाँव मे ही
व्यर्थ सपनों के लिये क्यों आज के सच को गवांता
तू धरा को क्या बनाता , पूछता है अब विधाता
इक नियम ब्रम्हाण्ड का है
ग्रह सभी जिसमें चले हैं
है धरा की गोद माँ की
खेल जिसमे सब पले हैं
माँ पहनती उस वसन में , आग कोई है लगाता
तू धरा को क्या बनाता , पूछ्ता है अब विधाता
है सरलता, राज पथ सी
है तरलता एक सच ही
क्या विनाशक सर चढ़ा बन
चुन लिया है पर कुपथ ही
क्यों सहज से रास्ते पर तू अभी भी चल न पाता
तू धरा को क्या बनाता , पूछता है अब विधाता
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराजभाईजी, आपके इस गीत की सार्थकता को लेकर कोई संदेह ही नहीं है. आपने आज की प्राकृतिक अव्यवस्था के कारणों को गहनता से समझ कर उन्हें गीतात्मक स्वरूप दिया है. हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय.
शुभेच्छाएँ
इस सुन्दर मनभावन गीत हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें आ.
बहुत सुन्दर मनभावन गीत .. बधाई |
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर सुन्दर प्रस्तुति ,इन पंक्तियों पर विशेष ध्यान आकर्षित हो रहा है
इक नियम ब्रम्हाण्ड का है
ग्रह सभी जिसमें चले हैं
है धरा की गोद माँ की
खेल जिसमे सब पले हैं
माँ पहनती उस वसन में , आग कोई है लगाता
तू धरा को क्या बनाता , पूछ्ता है अब विधाता.........शानदार , हार्दिक बधाई सर ! सादर
आदरनीय समर कबीर भाई , रचना की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥
आदरणीय मिथिलेश भाई , गीत को पसंद करने के लिये आपका बहुत आभार ॥
आदरणीय श्री सुनील भाई , गीत की सराहना के लिये आपका अभारी हूँ
आदरणीय आशुतोष भाई , आपका बहुत बहुत आभार ॥
आदरणीय कृष्णा भाई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
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