वार्तायें ,
किसी सर्व समावेशी बिन्दु की तलाश में
अपने अपने वैचारिक खूँटे से बंधे बंधे क्या सँभव है ?
आँतरिक वैचारिक कठोरता
क्या किसी को विचारों के स्वतंत्र आकाश में उड़ने देता है ?
सोचने जैसी बात है
वार्तायें अपने अपने सच को एन केन प्रकारेण स्थापित करने के लिये नहीं होतीं
न ही लोट लोट के किसी भी बिन्दु को स्वीकार कर लेने लिये ही होती हैं
वार्तायें होतीं है
अब तक के अर्जित सब के ज्ञान को मिला के एक ऐसा मिश्रण तैयार करने के लिये
जिसमे सबका हित निहित हो
अपनी अपनी ज़िद को किसी कोने में डाल के
सरतला और तरलता के साथ
इस स्वीकार भाव के साथ कि ,
अगर कुछ बेहतर निकलता है मंथन से तो मै उसे स्वीकार करूँगा ,
मेरे सच के इतर भी , एक नये सच की तरह
कम से कम तब तक के लिये जब तक कोई और बेहतर न मिल जाये
महा शक्तियों के बीच की वार्तायें विकट होतीं हैं
बँट जाती है छोटी छोटी शक्तियाँ / बँटना ही पड़ता है
टतस्थ रहना ठीक नहीं समझा जाता , और न ही सरल है , छोटी शक्तियों के लिये
ऐसे में एक सर्व समावेशी बिन्दु की तलाश ज़िम्मेदारी हो जाती है
महा शक्तियों की
छोटी छोटी शक्तियाँ के बँट जाने का कारण भी तो वही है न
पौराणिक मान्यता है कि ,
शेषनाग की करवट भूकंप का कारण होती है
तो , नाग देवता की ज़िम्मेदारी भी है
कि ,करवट इस ढंग़ से ले कि धरती में तबाही न मचे
है कि नहीं ?
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
परस्पर संवाद बनने क्रम में रह-रह कर सिर उठा लेती एक गंभीर समस्या को बड़ी ही गहनता से शाब्दिक किया है आपने, आदरणीय गिरिराज भाई.
यह सच ही कहा है, आपने -
वार्तायें होतीं है
अब तक के अर्जित सब के ज्ञान को मिला के एक ऐसा मिश्रण तैयार करने के लिये
जिसमे सबका हित निहित हो
अपनी अपनी ज़िद को किसी कोने में डाल के
सरतला और तरलता के साथ
महा शक्तियों के बीच की वार्तायें विकट होतीं हैं
बँट जाती है छोटी छोटी शक्तियाँ / बँटना ही पड़ता है
टतस्थ रहना ठीक नहीं समझा जाता , और न ही सरल है , छोटी शक्तियों के लिये............. क्या बात ! क्या बात !
पौराणिक मान्यता है कि ,
शेषनाग की करवट भूकंप का कारण होती है
तो , नाग देवता की ज़िम्मेदारी भी है
कि ,करवट इस ढंग़ से ले कि धरती में तबाही न मचे
है कि नहीं ?.......................... हा हा हा !!
वाह-वाह बहुत खूब ! आज शेषनाग अकेला नहीं है, आदरणीय. इसके कई वंशज अपने-अपने हिस्से की धरती सम्हालते तो क्या हैं, हिलाते जरूर रहते हैं. यही इनके अहं को तुष्ट करता है. और प्रभावित धरतीवासी लगातार डोलते रहते हैं, क्या करें कि ना करें ! यह धरतीवासियों की विवशता भी है !
यह कविता पता नहीं पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में सफल क्यों नहीं हो पायी !
आपकी संवेदनशीलता प्रणम्य है आदरणीय.
एक बात :
आँतरिक वैचारिक कठोरता
क्या किसी को विचारों के स्वतंत्र आकाश में उड़ने देता है ? ................. यहाँ ’उड़ने देती है’ होना चाहिये.
टतस्थ ,, यह टंकण त्रुटि है. सही शब्द तटस्थ है.
सादर
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..एक नयी ताजगी लिए ...इस अनूठे चिंतन के लिए हार्दिक बधायी..सादर
आदरणीय श्याम भाई , रचना की सराहना के लिये आपक आभारी हूँ ॥
आदरणीय बड़े भाई , सलाह के लिये आपका आभारी हूँ , लेकिन खुल के विस्तार से समझायें तो मै ज़रूर अमल मे ला पाऊँगा । मै तो बस अपने किसी चिंतन को शब्द देने का प्रयास करता हूँ , मुझे ये भी नही पता कि अतुकांत का शिल्प कैसा है । अगर आप इसे देखें तो ज़रूर खुल के समझायें ताकि खुद मे कुछ सुधार कर पाऊँ ।
बहुत ही सुन्दर , बधाई इस प्रस्तुति के लिए आदरणीय |
आ० अनुज
आपके कथन का अपना सौन्दर्य है पर मित्र रचना इतनी विचार बोझिल न हो कि उसकी कविता दब जाए . सादर .
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