2122 2122 2122 212
है कोई क्या इस जहाँ में जो कभी हारा नहीं
"सिर्फ़ पाया हो यहाँ पर और कुछ खोया नहीं"
पत्थरों के बीच रह के मै भी पत्थर की तरह
दर्द की बस्ती में रह कर, देखिये रोया नहीं
ख़्वाब की बातें कहूँ क्या, नींद जब दुश्मन हुई
माँ का साया जब से रूठा , तब से मैं सोया नहीं
बादलों में खेमा बन्दी भी हुई क्या ? आज कल
क्यों मेरे घर से गुज़रते वक़्त वो बरसा नहीं
मरहले के और पहले थक गया था काफिला
आबला पा था मुसाफिर वो मगर बैठा नहीं
शक्लो सूरत मै मिला के देख कर , सोचा यही
आदमी लगता है वो पर आदमी जैसा नहीं
उनके टेढ़े प्रश्न का उत्तर तो रखता हूँ मगर
हर्फ मेरे खार से हैं , इसलिये कहता नहीं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत आभार ।
सदैव समान, आपकी एक और खूबसूरत गज़ल। हार्दिक बधाई।
आदरणीय श्री सुनील भाई , सराहना के लिये बहुत आभार ।
आ. नीलेश भाई , आभार आपका ।
वाह ..ख़ूब
बधाई
आदरणीय वीनस भाई , आपकी उपस्थिति और सराहना ने सच मे हौसला दिया । हौसला अफ्ज़ाई का बहुत शुक्रिया ।
पत्थरों के बीच रह के मै भी पत्थर की तरह
दर्द की बस्ती में रह कर, देखिये रोया नहीं
वाह वा क्या कहने
आदरणीय नरेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय कृष्णा भाई , गज़ल की सराहना और कुछ शे र पसंद करने के लिये आपका आभारी हूँ ॥
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