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ग़ज़ल - फिल बदीह - मिसरा - खूब सूरत है मगर ये आपसे प्यारा नहीं ( गिरिराज भंडारी )

2122 2122 2122 212

है कोई क्या इस जहाँ में जो कभी हारा नहीं
"सिर्फ़ पाया हो यहाँ पर और कुछ खोया नहीं"

पत्थरों के बीच रह के मै भी पत्थर की तरह
दर्द की बस्ती में रह कर, देखिये रोया नहीं

ख़्वाब की बातें कहूँ क्या, नींद जब दुश्मन हुई
माँ का साया जब से रूठा , तब से मैं सोया नहीं

बादलों में खेमा बन्दी भी हुई क्या ? आज कल
क्यों मेरे घर से गुज़रते वक़्त वो बरसा नहीं

मरहले के और पहले थक गया था काफिला
आबला पा था मुसाफिर वो मगर बैठा नहीं

शक्लो सूरत मै मिला के देख कर , सोचा यही
आदमी लगता है वो पर आदमी जैसा नहीं

उनके टेढ़े प्रश्न का उत्तर तो रखता हूँ मगर
हर्फ मेरे खार से हैं , इसलिये कहता नहीं
******************************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on June 9, 2015 at 10:59am

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत आभार ।

Comment by vijay nikore on June 9, 2015 at 10:20am

सदैव समान, आपकी एक और खूबसूरत गज़ल। हार्दिक बधाई।


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 8, 2015 at 8:00am

आदरणीय श्री सुनील भाई , सराहना के लिये बहुत आभार ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 8, 2015 at 7:59am

आ. नीलेश भाई , आभार आपका ।

Comment by shree suneel on June 8, 2015 at 1:25am
है कोई क्या इस जहाँ में जो कभी हारा नहीं
"सिर्फ़ पाया हो यहाँ पर और कुछ खोया नहीं".. .. ख़ूब
अच्छी ग़ज़ल हुई आदरणीय. बधाइयाँ आपको.
Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 7, 2015 at 3:57pm

वाह ..ख़ूब 
बधाई 


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 6, 2015 at 10:27pm

आदरणीय वीनस भाई , आपकी उपस्थिति और सराहना ने सच मे हौसला दिया । हौसला अफ्ज़ाई का बहुत शुक्रिया ।

Comment by वीनस केसरी on June 6, 2015 at 2:10pm

पत्थरों के बीच रह के मै भी पत्थर की तरह
दर्द की बस्ती में रह कर, देखिये रोया नहीं

वाह वा क्या कहने


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 6, 2015 at 1:48pm

आदरणीय नरेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 6, 2015 at 1:48pm

आदरणीय कृष्णा भाई , गज़ल की सराहना और कुछ शे र पसंद करने के लिये आपका आभारी हूँ ॥

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