(१)
दो पहाड़ियों को सिर्फ़ पुल ही नहीं जोड़ते
खाई भी जोड़ती है
- गीत चतुर्वेदी
कोई किसी से कितनी नफ़रत कर सकता है? जब नफ़रत ज़्यादा बढ़ जाती है तो आदमी अपने दुश्मन को मरने भी नहीं देता क्योंकि मौत तो दुश्मन को ख़त्म करने का सबसे आसान विकल्प है। शुरू शुरू में जब मेरी नफ़रत इस स्तर तक नहीं पहुँची थी, मैं अक्सर उसकी मृत्यु की कामना करता था। मंगलवार को मैं नियमित रूप से पिताजी के साथ हनुमान मंदिर में प्रसाद चढ़ाने जाता था। प्रसाद पुजारी को देने के बाद पिताजी हाथ जोड़ कर और आँखें बंद करके प्रार्थना करते थे। मैं भी पिताजी को देखकर वैसा ही करता था। अंतर बस इतना था कि वो संभवतः हनुमान चालीसा पढ़ते थे और मैं उस लड़की की मृत्यु की कामना करता था। जैसे जैसे मेरी नफ़रत बढ़ती गई मैं माँगने लगा कि ये मरे नहीं जिन्दा रहे और जैसे ये मेरे हिस्से का मान सम्मान मुझसे छीन लेती है वैसे ही एक दिन मैं इसके हिस्से का मान सम्मान इससे छीन लूँ।
बचपन से ही वो हर चीज में मुझसे आगे थी। वो मेरे पिताजी के दोस्त की बेटी थी। मेरे पिताजी के सामने उनके दोस्त की कोई हैसियत नहीं थी। वो ठेले पर चाट बेचकर अपने परिवार का पेट पालते थे और मेरे पिताजी कस्बे के एकमात्र पेट्रोल पम्प के मालिक थे। मेरे पिताजी कभी कभार उसके पिताजी की मदद भी कर देते थे। हर बात में मेरा परिवार उसके परिवार से आगे था। मेरे पिताजी के दो बेटे थे यानि कि हम दो भाई थे और उसके पिताजी के तीन बेटियाँ थीं। बेटा न होने का ग़म उसके पिताजी को सालता रहता था। मैं भाइयों में सबसे बड़ा था और वो बहनों में। हम दोनों एक ही विद्यालय में और एक ही कक्षा में पढ़ते थे। अंतर बस इतना था कि वो हर बार कक्षा में प्रथम स्थान पर रहती थी और मैं द्वितीय स्थान पर।
कक्षा में अध्यापक जब भी कोई प्रश्न पूछते वो फट से हाथ उठा देती और पटर पटर प्रश्न का उत्तर देने लगती। उसकी बोली मेरे कानों में पिघले शीशे की तरह टपकती। प्रश्न का उत्तर तो मुझे भी पता होता पर मुझे हाथ उठाने में शर्म महसूस होती थी। मैं थोड़ा सा हकलाता था। कुछ एक वर्ण ऐसे थे जो किसी विशेष वर्ण के बाद आ जाएँ तो मै कितनी भी कोशिस करूँ उनका उच्चारण नहीं कर पाता था। शुरू में एक दो बार मैंने भी हाथ उठाया था। मगर हकलाने के कारण मुझे इतनी शर्मिन्दगी झेलनी पड़ी कि फिर मैंने हाथ उठाना ही बन्द कर दिया।
वो न होती तो निःसंदेह मैं नम्बर वन होता। अध्यापकों को मेरे हकलाने के बावजूद उत्तर सुनना पड़ता क्योंकि शहर से दस किलोमीटर दूर बसे इस छोटे से कस्बे के इस छोटे से विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थी पढ़ने में कम और बाकी सारी बातों में ज़्यादा रुचि लेते थे। उन्हें कोई उत्तर याद हो इस बात का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। वो न होती तो शायद अध्यापक मेरी मदद करते और तब कक्षा के अन्य कामचोर विद्यार्थी मेरे हकलाने पर मेरा मज़ाक न उड़ाते। वो न होती तो मेरी जिन्दगी कितनी आसान और शानदार होती।
(२)
मुझे तब कुछ राहत मिली जब छठी कक्षा में मैंने राजकीय इण्टर कालेज में प्रवेश लिया। इस कालेज में केवल लड़के ही पढ़ते थे। वो गई राजकीय महिला इण्टर कालेज में। छठवीं से आठवीं कक्षा तक मुझे राहत रही। मैंने इन तीनों कक्षाओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया और अध्यापकों का चहेता बना रहा। लेकिन मेरी बदकिस्मती अगर इतनी आसानी से मेरा पीछा छोड़ देती तो बात ही क्या थी। नवीं कक्षा में फिर मुझे उसी समस्या से दो चार होना पड़ा। इस छोटे से शहर में भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, गणित और अंग्रेजी के अच्छे शिक्षक उँगलियों पर गिने जा सकते थे। उनमें से कुछ तो वही थे जो मेरे विद्यालय के अध्यापक थे। ये अध्यापक विद्यालय में कम और अपने घर पर कोचिंग में ज़्यादा पढ़ाया करते थे। इसलिए जिन विद्यार्थियों को पढ़ने में रुचि थी वो इन चारों विषयों की कोचिंग पढ़ा करते थे। मैंने भी इन चारों विषयों की कोचिंग पढ़ने का निर्णय लिया। सबसे पहले मैंने भौतिक विज्ञान पढ़ने का निश्चय किया। भौतिकी में मेरी रुचि थी इसलिए मैं चाहता था कि सुबह ताज़े दिमाग़ से मैं भौतिक विज्ञान पढ़ूँ। मैंने निर्णय लिया कि सुबह सात से आठ के बैच में मैं भौतिक विज्ञान पढ़ूँगा।
यहाँ से फिर वही समस्या पैदा हुई। उसके पिता ने भी उसे उन्हीं अध्यापकों के पास, उसी समय भेजा जब मैं पढ़ने जाता था। उन्होंने संभवतः उसकी सुरक्षा के लिहाज़ से ऐसा किया होगा कि मैं साथ रहूँगा तो वो चिन्ता से मुक्त रहेंगे। लेकिन मेरे लिए वो जी का जंजाल बन गई। अब तो सारे अध्यापक विद्यालय में भी मुझसे ज़्यादा तारीफ़ उसी की करते थे और कहते थे कि वो दसवीं में जिले भर में सबसे ज़्यादा नम्बर लाकर उनका नाम रोशन कर सकती है। हो सकता है उसका नाम बोर्ड की मेरिट लिस्ट में भी रहे। ये सुनकर मेरा रोम रोम जल उठता था।
जैसा अध्यापक सोच रहे थे वैसा ही हुआ। जब परीक्षा परिणाम घोषित हुए तो उसका नाम बोर्ड की मेरिट लिस्ट में पन्द्रहवें स्थान पर था। मैं उससे केवल पन्द्रह नम्बर पीछे था लेकिन मेरिट लिस्ट से बाहर होने के लिए इतने नम्बर बहुत होते हैं। घर वालों और मुहल्ले वालों से जो सम्मान मुझे मिलना चाहिए था वो सारा उसको मिल गया। जब दो लाइनें आस पास खींची हुई हों तो छोटी लाइन को कौन देखता है। यही दुनिया की रीति है। दूसरे, तीसरे, चौथे नंबर वाले को कौन पूछता है? कौन याद रखता है? इन सबको जो सम्मान मिलना चाहिए वो इनसे छीनकर पहले नंबर वाले को दिया जाता है। पहला नंबर सबकुछ है उसके बाद वाले नंबर जो उससे ज़रा सा ही कम हैं, कुछ भी नहीं।
(३)
बारहवीं कक्षा में मेरे और उसके बीच का अंतर कुछ कम हुआ। इस बार वो मेरिट लिस्ट में नहीं थी और मैं उससे केवल पाँच नम्बर कम लाया था। वो तो मुई अंग्रेज़ी धोखा दे गई वरना इस बार मैं उसे पटखनी देने में कामयाब हो जाता। इस बार मैं उसका सारा घमंड तोड़ देता।
बारहवीं कक्षा पास करने के बाद मैं इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की कोचिंग लेने दिल्ली में अपने मामा के घर चला गया। उसका दिल्ली में कोई नहीं था इसलिए वो लखनऊ में अपने चाचा के पास चली गई जो उन दिनों वकालत करने के बाद किसी बड़े वकील के चेले बनकर कोर्ट-कचहरी का काम सीख रहे थे। उसके चाचा के दो बेटे थे जिन्हें वो पढ़ाती भी थी।
साल बीतते देर नहीं लगी। हम लोग इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा देकर घर वापस आ गये। जब संयुक्त प्रवेश परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ तो मैं ख़ुशी से पागल हो गया। मैं सफल हो गया था और वो असफल। वैसे मैं बड़ी मुश्किल से सफल हो पाया था और वरीयता क्रम में मेरा नाम बहुत नीचे था लेकिन उसका तो चुनाव ही नहीं हुआ था। इस बार घर और मुहल्ले वालों के पास मेरी तारीफ़ करने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
मैं उसके घर गया। उसकी मम्मी बाहर बरामदे में बैठी थी।
मैंने पूछा, “कलिका कहाँ है”।
उन्होंने जवाब दिया, “अन्दर है। अपने कमरे में। बहुत रो रही है। तुम उसके दोस्त हो जाकर उसे समझाओ। शायद तुम्हारी बात समझ ले।”
मैं मन ही मन हँसा। मैं और उसका दोस्त। मैं तो उसका सबसे बड़ा दुश्मन हूँ। मैं उसके कमरे में गया। दरवाजा अन्दर से बन्द नहीं था। मैं धक्का दिया तो वो खुल गया। वो तकिये में मुँह छिपाकर लेटी हुई थी।
मैंने पुकारा, “कलिका”।
मेरी आवाज सुनकर उसने तकिये से सर उठाया। तकिया उसके आँसुओं से भीगा हुआ था। मेरी दुश्मन मेरे सामने थी। कमजोर, निराश, हारी हुई। अब वक़्त था आखिरी वार करने का।
मैंने कहा, “देखो कलिका ये कोई बड़ी बात नहीं। संयुक्त प्रवेश परीक्षा में कुल चुने गये विद्यार्थियों का केवल दस प्रतिशत लड़कियाँ होती हैं। इसलिए तुम्हारा न चुना जाना कोई बड़ी बात नहीं। देखो दसवीं और बारहवीं की परीक्षा तो कोई भी रट कर पास कर लेता है लेकिन संयुक्त प्रवेश परीक्षा में चुने जाने के लिए तेज़ दिमाग चाहिए। वो सब के पास नहीं होता। ख़ास कर लड़कियों के पास। विश्व भर में किये गये विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि लड़कियों के दिमाग का आयतन लड़कों से एक सौ पच्चीस घन सेन्टीमीटर कम होता है। मुझे तो लगता है कि तुम्हें गणित छोड़कर कोई और विषय चुन लेना चाहिए। वैसे देखो अभी प्रदेश की प्रवेश परीक्षा का परिणाम आने वाला है। शायद उसमें तुम्हारा चुनाव हो जाय।”
ये सब बोलते हुए मैं एक बार भी नहीं हकलाया। ये तो चमत्कार हो गया। मेरी बात सुनकर वो जोर जोर से रोने लगी। मैं तुरन्त उसके कमरे से बाहर आ गया।
उसकी माँ ने पूछा, “क्या हुआ बेटा”।
मैंने कहा, “अ.....आन्टी, वो तो कोई बात सुनने को ही तैयार नहीं है। मेरे विचार में उसे अ...अच्छी तरह रोने देना ही ठीक रहेगा। एक बार उसके दिल का गुबार निकल गया तो सब ठीक हो जाएगा।”
“और बेटा तुम मिठाई कब खिला रहे हो”।
“अ..अभी तो बड़ी तेज़ धूप है। शाम को बाजार से लेकर आता हूँ अ...आन्टी”।
ये कहकर मैं फौरन वहाँ से चलता बना। मेरा काम हो गया था।
(४)
जब प्रदेश की प्रवेश परीक्षा का परिणाम आया तो पता चला कि उसका भी चुनाव हो गया है। इस परीक्षा में वरीयता क्रम में वो मुझसे तीन सौ पैंतीस स्थान नीचे थी। मुझे कितना सुकून मिला मैं बता नहीं सकता। बहरहाल मैंने प्रौद्योगिकी संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और उसने मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग कॉलेज, इलाहाबाद में। मुझे सिविल इंजीनियरिंग में प्रवेश मिला और उसे मैकेनिकल इंजीनियरिंग में।
तीन साल कैसे गुज़र गये पता ही नहीं चला। चौथे साल की शुरुआत से ही कैंपस में विभिन्न कंपनियों का आना शुरू हो गया। मैं अपनी कक्षा का टॉपर था इसलिए स्क्रीनिंग में हर बार मैं चुन लिया जाता था लेकिन साक्षात्कार में मेरा हकलाना मेरे चुने जाने की राह में बाधक बन जाता था। मेरे देखते ही देखते मेरे ज़्यादातर दोस्तों को विभिन्न कंपनियों में नौकरी मिल गई। यहाँ तक तो सब ठीक था मगर दशहरे की छुट्टियों में घर आने के बाद मुझे पता चला कि कलिका की नौकरी किसी कंपनी में लग गई है। मैं बता नहीं सकता मुझे कैसा लग रहा था जब वो मुस्कुराती हुई मिठाई लेकर मेरे पास आई।
उसने कहा, “माना मेरा दिमाग़ तुमसे एक सौ पच्चीस घन सेन्टीमीटर कम है लेकिन मेरी संप्रेषण क्षमता तुमसे एक सौ पच्चीस घनमीटर ज़्यादा है। अब जाओ एम. टेक. करो, फिर पी.एच.डी. करो और किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफ़ेसर हो जाओ।”
उस दिन मेरे भीतर कुछ मर गया। मेरे मन में उसके प्रति यदि कहीं कोई कोमल भावना थी तो वो ख़त्म हो गई। उस दिन पहली बार मैं बिना कोई संजीदा फ़िल्म देखे रोया। मैं वापस गया कॉलेज गया और कुल मिलाकर सत्रह बार मुझे साक्षात्कार देने का मौका मिला और मैं सब में असफल हुआ। ये साल भी पलक झपकते ही गुज़र गया और जब गेट की परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ तो वरीयता सूची में मैं देश भर में पचासवें स्थान पर था। मैंने आईआईटी रुड़की में संरचनात्मक अभियांत्रिकी में एम. टेक. करने के लिए प्रवेश लिया।
यहाँ मेरा पहला साल आराम से गुज़रा। पढ़ने और परीक्षा पास करने में मुझे कोई ख़ास दिक़्कत नहीं होती थी। दूसरे साल से फिर मैंने कॉलेज कैंपस में आने वाली कंपनियों में साक्षात्कार देना शुरू किया। पहली दो कंपनियाँ छोटी छोटी कंपनियाँ थीं जिनमें मैं एक बार फिर साक्षात्कार में असफल रहा। तीसरी कंपनी थी राष्ट्रीय शक्ति निगम, जो देश की सबसे बड़ी जल विद्युत उत्पादक कंपनी थी। इस कंपनी ने साक्षात्कार में मेरे हकलाने के बावजूद मुझे चुन लिया गया। मैंने घर फोन करके सबको बताया। फिर मैंने कलिका की माँ से कलिका का मोबाइल नम्बर लिया। उसे फोन लगाया और अपनी नौकरी के बारे में बताया। ये भी बताया कि मेरी तनख़्वाह उससे डेढ़ गुना होगी। उसने बधाई हो कहकर फोन काट दिया।
मेरा काम हो चुका था। मैं उसे जलाना चाहता था और मुझे पूरा विश्वास था कि इस समय वो पेट्रोल से भी ज़्यादा तेज़ जल रही होगी।
(५)
एम. टेक. करने के बाद मैंने राष्ट्रीय शक्ति निगम में अपना कार्यभार सँभाल लिया। मुझे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में रामगंगा नदी चल रही परियोजना में भेज दिया गया। यहाँ मेरी कंपनी एक बाँध का निर्माण कर रही थी। बाँध कंक्रीट का बनाया जा रहा था और उसका निर्माण कार्य आधा हो चुका था। वहाँ मुझे पहली बार वह सब अपनी आँखों के सामने देखने का मौका मिला जो मैंने अब तक किताबों में ही पढ़ा था। बड़ी बड़ी मशीनें, जिनके सामने आदमी चींटी जैसा नज़र आता है। बड़े बड़े एक्सकैवेटर, डंपर, डोजर, कम्पैक्टर जब चलते थे तो लगता था कि जैसे बादल गरज रहे हों। ऊँची-ऊँटी टॉवर क्रेनें, बड़े बड़े कंक्रीट पम्प और ढेर सारी कंक्रीट। कंक्रीट को सही जगह और सही तरीके से गिराने में मदद करते हजारों मज़दूर। काम बहुत तेज़ गति से चल रहा था और हमें उम्मीद थी कि ये सब वक़्त से पहले पूरा हो जाएगा। धीरे धीरे मेरा मन काम में रम गया।
सरकारी उपक्रमों में किस आदमी से कौन सा काम लिया जाएगा ये कोई नहीं बता सकता। हो सकता है आप इंजीनियर हों और आपको पेड़ पौधे लगाने का काम दे दिया जाय या आपको मानव संसाधन विभाग में लगा दिया जाय। इस मामले में मैं खुशकिस्मत था कि मुझे वहीं लगाया गया जहाँ मैं चाहता था। सरकारी उपक्रमों का मानव संसाधन विभाग संभवतः सबसे अक्षम विभाग है क्योंकि उसे ये बिल्कुल भी नहीं पता होता कि कौन किस काम के लिए सही रहेगा। सब ट्रायल एण्ड एरर पर चलता है। लग गया तो तीर नहीं तो तुक्का। लेकिन सरकारी उपक्रमों में एक और बात है जो बड़ी अजीब तो है लेकिन बहुधा होती है। जो काम करता है उसे और काम दे दिया जाता है और जो नहीं करता उसे कम से कम काम मिलता है। कुछ दिनों के बाद सिविल के साथ साथ मैकेनिकल विभाग के कुछ कार्यों की जिम्मेदारी भी मेरे पास आ गई। अब मुझे पावर इन्टेक (वो स्थान जहाँ से पानी टरबाइन तक जाने वाली सुरंग में घुसता है) और स्पिलवे (वो स्थान जहाँ से अतिरिक्त पानी को निकाल जाता है) के गेट भी लगवाने थे। ये काम कुल दो सौ पचास करोड़ का था।
उधर कलिका ने मुझसे ज़्यादा वेतन पाने के लिए अपनी पुरानी कंपनी छोड़कर एक दूसरी बड़ी कंपनी में चली गई। ये शायद उसके जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। उसका वेतन तो मुझसे ज़्यादा हो गया लगभग डेढ़ गुना। लेकिन उसे ये नहीं मालूम था कि वो जिस कंपनी में जा रही है उसे मेरी परियोजना में ही पावर इन्टेक और स्पिलवे का गेट लगाने का काम सौंपा गया है। भारत में गिनी चुनी ही ऐसी कंपनियाँ हैं जिनके पास इतने बड़े गेट बनाने और लगाने का अनुभव है। कलिका को मेरी परियोजना में उपमहाप्रबंधक बनाकर भेज दिया गया। उसने अपने उच्चाधिकारियों को कहीं और भेजने के लिए पत्र लिखा लेकिन जवाब मिला कि अभी तो आपको जाना ही पड़ेगा। हाँ साल छः महीने में कहीं और जगह खाली होगी तो आपको वहाँ स्थानान्तरित कर दिया जाएगा।
इस तरह कलिका मेरी परियोजना में आई। इस परियोजना की मालिक मेरी कंपनी थी और उसकी कंपनी को इस परियोजना में दौ सौ पचास करोड़ का काम करना था। उसने आते ही बड़ी दक्षता से काम काज सँभाल लिया। हम दोनों जब आमने सामने पड़ते तो मैं नज़र चुराकर निकल जाता। जब कभी उसकी कंपनी के साथ बैठक होती और उसमें कलिका को आना होता मैं बैठक में किसी और को भेज देता। पहले महीने के काम के लिए उसकी कंपनी ने चार करोड़ का बिल भेजा। मैंने उसकी कंपनी के कामों में इतनी कमियाँ निकालीं कि वो बिल केवल डेढ़ करोड़ का रह गया। मेरी कंपनी के वित्त विभाग का एकमात्र उसूल है कि कम से कम भुगतान करो। कम भुगतान में कोई ख़तरा नहीं है अगर कोई गलती बता दे तो उसे अतिरिक्त भुगतान कभी भी किया जा सकता है लेकिन अगर ज़्यादा भुगतान हो गया तो उसे वापस पाना बहुत मुश्किल होता है। डेढ़ करोड़ के बिल में वित्त विभाग ने कुछ और कमियाँ निकालकर उसे एक करोड़ का कर दिया।
जब कलिका की कंपनी के खाते में पैसे पहुँच गए तो वो मेरे पास आई। मैं उसकी सूरत देखते ही समझ गया कि इसे अपने उच्चाधिकारियों से अच्छी ख़ासी डाँट पड़ी है।
वो बोली, “सुरेश, तुमने हमारे पैसे क्यों कम कर दिये।”
मैंने मुँह बनाते हुए उत्तर दिया, “तुम्हारे बिल बहुत सारी कमियाँ थीं जो जिनकी सूचना पत्र द्वारा तुम्हें दे दी जाएगी। उन कमियों को सुधारकर अगले महीने फिर से बिल भेजना।” अब मेरा हक़लाना पूरी तरह ख़त्म हो चुका था। शायद मेरी हकलाहट केवल आत्मविश्वास की कमी के कारण थी जो अब पूरी तरह से दूर हो चुकी थी।
उसने कहा, “तब तक हमारा काम कैसे चलेगा। हमारी कंपनी पहले ही यंत्र एवं उपकरण खरीदने में पचास करोड़ का ऋण ले चुकी है। अब हमारा प्रधान कार्यालय और पैसे भेजने से मना कर रहा है। अगर आप हमारे मासिक बिल का भुगतान नहीं करेंगे तो हम आगे का काम करने के लिए पैसे कहाँ से लाएँगें।”
मैंने कहा, “मुझे नहीं पता। तुमने सारे गेट बनाने का कान्ट्रैक्ट लिया है। तुम्हें गेट बनाना है। इसके लिए पैसे कहाँ से आएँगे ये तुम्हारी सरदर्दी है। मैं तुम्हें उतना ही भुगतान करवा सकता हूँ जितने का काम तुमने अच्छी तरह किया है। अगर किसी काम में जरा भी कमी होगी तो उसका भुगतान तब तक नहीं होगा जब तक कि वो कमी दूर न हो जाय। अगर तुम्हारी कंपनी ये काम नहीं कर सकती तो मना कर दे। हम तुम्हारे जोख़िम और लागत पर किसी और से करवा लेंगे। तुम्हारी कंपनी को ब्लैक लिस्ट कर देंगे और उसके बाद तुम्हें इस देश में कोई भी सरकारी / अर्द्धसरकारी कंपनी कान्ट्रैक्ट नहीं देगी।”
मुझे लगा कि अब वो रो देगी। अगर वो रो देती या एक बार गिड़गिड़ाकर मुझसे प्लीज़ कह देती तो मैं पूरक बिल बनाकर उसका भुगतान करवा देता। लेकिन वो एक झटके से उठी और बार निकल गई। तभी चाय वाला चाय लेकर भीतर आया। उसको दफ़्तर खाली दिखा तो वो बोला, “साहब आपने तो दो कप चाय मँगाई थी”।
मैंने कहा, “एक कप मुझे दे दे। एक कप तू पी लेना। इतनी देर लगती है चाय बनाने में।”
चाय वाले ने एक कप चाय मेरे सामने रखी और मेरे गुस्से को देखते हुए चुपचाप खिसक लेने में ही अपनी भलाई समझी।
(६)
अगले दिन मुझे परियोजना के महाप्रबंधक ने बुलाया। मैं उनके कार्यालय में गया तो उन्होंने मिलने से पहले मुझे दो घंटे बाहर इंतजार करवाया। वो ऐसा तब करते थे जब किसी पर गुस्सा हों। मैं समझ नहीं पा रहा था कि हमेशा मुझसे खुश रहने वाले महाप्रबंधक मुझसे नाराज़ क्यों हैं। मैं उनके सामने गया तो बोले, “देखो सुरेश, जब कान्ट्रैक्टर कोई काम करता है उसका काम का उचित भुगतान करना हमारा कर्यव्य बन जाता है। ये कंपनी इतनी बड़ी इसीलिए हुई है क्योंकि हमारे सारे कान्ट्रैक्टर यह विश्वास करते हैं कि यदि वो हमारे लिए अच्छा काम करेंगे तो हम उसके बदले उन्हें उचित भुगतान करेंगे। अब तक तो तुम्हारे खिलाफ़ मुझे कोई शिकायत नहीं प्राप्त हुई थी। इस बार तुमसे ऐसी गलती क्यूँ हो गई।”
मैं अपने बचाव में बोला, “उन्होंने जो बिल भेजा था उसमें बहुत गलतियाँ थीं। ऐसा ग़लत बिल अगर मैं पास कर देता तो कल को हम लोग सतर्कता विभाग की जाँच में फँस सकते थे। मैंने उन गलतियों के बारे में कान्ट्रैक्टर को पत्र लिख दिया है। अब अगले महीने जब वो गलतियाँ दूर कर लेंगे तो मैं भुगतान के लिए भेज दूँगा।”
महाप्रबंधक बोले, “अगले महीने नहीं इसी महीने करना है। आज सुबह ही कान्ट्रैक्टर काम बंद कर देने की धमकी देकर गया है। हमारी परियोजना समय से पहले पूरी होने जा रही है और ये बाकी कंपनियों के लिए एक मील का पत्थर होगी। मैं नहीं चाहता कि कुछ छोटी मोटी गलतियों की वज़ह से काम को किसी भी तरह का कोई नुकसान हो। कान्ट्रैक्टर बिल सुधारकर कल ही भेज देगा और तुम उसे जाँच करके शीघ्रातिशीघ्र भुगतान के लिए भेज देना। वित्त विभाग को भी मैं समझा दूँगा कि वो इतनी छोटी गलतियों के लिए पैसे न रोकें।”
मैं क्या कहता बात अब मेरे हाथ से निकल चुकी थी। मैं बोला, “ठीक है सर मैं पूरक बिल बना कर भेज दूँगा।”
महाप्रबंधक बोले, “ये हुई न बात। आगे से ऐसी शिकायत मेरे पास नहीं आनी चाहिए।”
मैं महाप्रबंधक कार्यालय से बाहर निकला। गुस्से के मारे मेरा चेहरा तमतमा रहा था। तो इस लड़की की दुम ने मेरे खिलाफ़ महाप्रबंधक से शिकायत कर दी। इसे तो ऐसी जगह ले जाकर मारूँगा जहाँ इसे पानी भी नसीब नहीं होगा। लेकिन नहीं, इसे मैं मारूँगा नहीं। मार दिया तब तो ये मुक्त हो जाएगी। इसे तड़पाऊँगा। बुरी तरह तड़पाऊँगा। इसे मैं मारूँगा नहीं।
उस रात मैंने एक सपना देखा। बड़ा अजीब सा सपना। इतना अजीब कि वो सपना मुझे आज भी ज्यों का त्यों याद है। मैं स्पिलवे की नींव के पास खड़ा था। जहाँ हज़ारों की संख्या में मज़दूर काम करते हैं वहाँ उस समय कोई नहीं था। सिर्फ़ मैं अकेला था। बिल्कुल अकेला। मैंने जोर से आवाज़ लगाई तो मेरी आवाज़ स्पिलवे के विशालकाय पियर से टकराकर वापस आ गई। अचानक ऊपर स्पिलवे के पुल पर से कलिका की आवाज़ आई, “यहाँ आ जाओ। मैं यहाँ हूँ।”
मैंने वहीं से एक छलाँग लगाई चालीस मीटर ऊँची छँलाग और सीधे उसके सामने पहुँच गया। वो आश्चर्य से मुझे देखने लगी और इसी पल का फ़ायदा उठाकर मैंने उसका गला दबाना शुरू कर दिया। उसने कोई विरोध नहीं किया। मैंने देखा उसकी आँखें धीरे धीरे अपने कोटरों से बाहर निकल आईं। उसकी गर्दन एक तरफ़ झूल गई। फिर मैंने उसे अपने कंधे पर उठाया और उसकी लाश को ले जाकर रामगंगा नदी में डाल दिया। मुझे पूरा यकीन था कि रामगंगा का तेज़ बहाव उसकी लाश के इतने टुकड़े करेगा कि वो पहचान में भी नहीं आएगी। तभी किसी ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैंने चौंक कर पीछे देखा। मेरे पीछे भी मैं ही खड़ा था। अचानक पीछे से मैंने मुझे एक जोर का धक्का दे दिया और मेरा शरीर रामगंगा नदी में गिरने लगा। मेरे शरीर में एक अजीब सी सनसनी हुई और मेरी नींद टूट गई।
“हे भगवान! कैसा अजीब सपना था। मैं और चाहे जो करूँ कभी उसकी हत्या नहीं कर सकता। ऐसे तो वो मुक्त हो जाएगी और मैं जेल चला जाऊँगा।” मैंने पानी पीते हुए सोचा।
(७)
अगले दिन सुबह मैंने उससे मोबाइल पर बात की। वो स्पिलवे गेट में हो रही वेल्डिंग की जाँच कर रही थी। मैं भी वहीं पहुँचा। वो ऊपर गेट के शीर्ष पर थी। नीचे से ऊपर जाने के लिए लोहे की पाइपों को वेल्ड करके सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। मैं रेलिंग का पाइप पकड़कर ऊपर चढ़ने लगा। तभी मेरी उँगली में कुछ घुसा। मैंने झुककर देखा तो पाया कि एक जगह वेल्डिंग ठीक नहीं हुई थी और पाइप का नुकीला सिरा बाहर निकला हुआ था जो ऊपर से दिखाई नहीं देता था। ऐसे में ये किसी को भी चुभ सकता था। मैंने आवाज़ देकर फ़ोरमैन को बुलाया। उससे दुबारा वेल्डिंग करने के लिए कहा और फिर से ऊपर चढ़ने लगा।
वो सफ़ेद हेल्मेट लगाये, धूप से चेहरा बचाने के लिए अपने हाथ से चेहरे पर छाँव किये हुए खड़ी थी। मैंने उसको आवाज़ देकर अपने पास बुलाया। मैं उसे उसके मज़दूरों और वेल्डरों के सामने नहीं डाँटना चाहता था। वो मेरे पास आ गई तो मैं बोला, “तो आखिरकार तुमने महाप्रबंधक से शिकायत कर ही दी न। तुम क्या समझती हो मैं इससे डर जाऊँगा। मैं अगर बिल का भुगतान न करवाना चाहूँ तो कोई मुझे मज़बूर नहीं कर पाएगा। अब तक तो मैं सोच रहा था कि एक दो महीने बाद पूरा भुगतान करवा दूँगा लेकिन अब देखता हूँ तुम्हारा भुगतान कौन करवाता है। कर लो, जहाँ शिकायत करनी हो कर लो।”
उसने मेरी तरफ़ उँगली करके कहा, “देखो सुरेश, मैंने तुम्हारे महाप्रबंधक से कोई शिकायत नहीं की। मैंने सिर्फ़ अपने उच्चाधिकारियों को वस्तुस्थिति से अवगत करवाया। उसके बाद उन्होंने तुम्हारे उच्चाधिकारियों से बात की हो तो मैं नहीं जानती। मैंने केवल अपने कर्तव्य का पालन किया। तुम्हें भुगतान नहीं करना हो तो मत करो। लेकिन इतना जान लो कि दाम नहीं तो काम नहीं।”
इस लड़की से बहस करना बेकार था। ये कभी नहीं डरेगी। ये कभी हार नहीं मानेगी। मैं गुस्से में पैर पटकता हुआ सीढ़ियाँ उतरने लगा। तभी मैंने देखा कि कुछ सरिये जो स्पिलवे के कंक्रीट में आधे घुसे हुए थे सीढ़ियों के रास्ते में आने की वजह से मोड़ दिये गये थे। अब ऊपर का काम होने के बाद उनको सीधा करके आगे की कंक्रीट की जानी थी। ये आठ मिलीमीटर व्यास के सरिये थे जो आसानी से मोड़े जा सकते हैं। मैंने झुककर एक सरिया पकड़ा और उसे सीधा कर दिया अब उसका कुछ हिस्सा सीढ़ियों के भीतर आ गया। ऐसा होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी। अक्सर ऊपर से कोई छोटा मोटा सामान गिर ही जाता था। ऐसे में उसका सरियों से टकराना और सरियों का थोड़ा सीधा हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी। मैं नीचे उतर आया।
नीचे आकर मैंने उसे फ़ोन लगाया और उसे फ़ौरन नीचे आने के लिए कहा। जब वो सीढ़ियाँ उतरने लगी तो मैंने उसे फिर फोन लगाया और बोला, “चलो ठीक है, इस महीने मैं तुम्हारी छोटी मोटी ग़लतियाँ माफ़ कर देता हूँ। तुम दुबारा बिल भेज दो मैं पूरक बिल बनाकर तुम्हारा भुगतान करवा दूँगा। लेकिन अगले महीने से ऐसी ग़लतियाँ मेरे संज्ञान में नहीं आनी चाहिए।”
वो मुझसे बात करने में व्यस्त थी। उसका दाहिना हाथ मोबाइल थामने में व्यस्त था इसलिए वो बिना रेलिंग पकड़े उतर रही थी। उसने नीचे निकला सरिया नही देखा। सरिया उसके पैरों से उलझा, वो लड़खड़ाई और वो हो गया जिसकी मैंने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। मैंने तो सोचा था कि वो मुझसे बात करने में व्यस्त रहेगी तो सरिया नहीं देख पाएगी और सरिये से उसकी पैन्ट का निचला हिस्सा फट जाएगा और उसके पैरों में थोड़ी बहुत खरोंच लग जाएगी। वो फटी पैन्ट पहनकर टहलेगी तो लोग उस पर हँसेंगे और इस तरह मैं अपने अपमान का बदला ले सकूँगा। लेकिन इस तरफ़ तो मेरा ध्यान गया ही नहीं था कि उसे बिना रेलिंग पकडे उतरना पड़ेगा और ऐसे में उसका बैलेंस बिगड़ जाएगा और वो सीधे नीचे गिर जाएगी। सीधे छ: सौ बत्तीस मीटर से छः सौ अठारह मीटर यानी चौदह मीटर नीचे।
(८)
वो सर के बल गिरी। उसका हेलमेट टूट गया और सर पर लगे जोरदार झटके से वो बेहोश हो गई। मैं दौड़ा। पागलों की तरह दौड़ा। वो बेहोश थी। मैंने उसे बाँहों में उठाया और फौरन अपनी गाड़ी में लिटा दिया। तीन मिनट बाद मैं साइट पर बने छोटे से चिकित्सालय में पहुँचा। वहाँ डॉक्टर ने उसकी मरहम पट्टी की और और कुछ इन्जेक्शन दिये। इन्जेक्शन देने के दस मिनट बाद भी जब उसे होश नहीं आया तो डॉक्टर को चिन्ता हुई। डॉक्टर ने टार्च जलाकर उसकी आँखों का निरीक्षण किया तो उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें उभर आईं। डॉक्टर ने कहा, “इन्हें जल्द से जल्द दिल्ली ले जाइये। शायद इनके मस्तिष्क को चोट पहुँची है वरना अब तक तो इन्हें होश आ जाना चाहिए था। जल्दी कीजिए वरना अगर दिमाग के अंदर खून रिस कर इकट्ठा हो रहा होगा तो खून के बढ़ते दबाव के कारण दिमाग़ क्षतिग्रस्त हो सकता है और ये कोमा में जा सकती हैं या इनकी मौत भी हो सकती है।”
तब तक उसकी कंपनी के परियोजना निदेशक वहाँ पहुँच चुके थे। मैंने उनसे बताया कि तुरंत हेलीकॉप्टर का प्रबंध करना पड़ेगा। उन्होंने अपने दिल्ली स्थित मुख्यालय से बात की पता चला कि हेलीकॉप्टर का इंतजाम करने में उनको सात आठ घंटे लग जाएँगें क्योंकि उनकी कंपनी जरूरत के मुताबिक हेलीकॉप्टर का प्रबंध करती है उनके पास कोई स्थाई हेलीकॉप्टर या किसी विमान कंपनी के साथ स्थायी अनुबंध नहीं है।
सात आठ घंटे में तो क्या से क्या हो जाएगा। गनीमत थी कि मेरी कंपनी का अनुबंध दिल्ली स्थित निजी विमान कंपनी पवनहंस से था। जिसको ऐसी आकस्मिक परिस्थितियों में फ़ोन कर देने भर से वो हैलीकॉप्टर भेज देते थे। मगर ये सुविधा केवल हमारी कंपनी के कर्मचारियों के लिए थी। मैंने उसकी कंपनी के परियोजना निदेशक को बताया तो उन्होंने स्वीकृति दी कि सारा खर्च उनकी कंपनी वहन करेगी मैं फ़ौरन हैलीकॉप्टर का इन्तज़ाम करूँ।
मैंने अपने महाप्रबंधक को सारी स्थिति बताई और ये भी बताया (मैं बताना तो नहीं चाहता था) कि मैं इस लड़की को बचपन से जानता हूँ और ये मेरे पड़ोस में ही रहती है। महाप्रबंधक ने कहा कि ठीक है हैलीकॉप्टर मँगवा लो लेकिन सबको यही बताना कि ये लड़की तुम्हारे रिश्ते में है। अगर कहोगे कि कान्ट्रैक्टर की कोई कर्मचारी है तो वो हैलीकॉप्टर भेजने में ना नूकुर करेंगे।
अगले कुछ मिनट मैं फोन पर व्यस्त रहा। उसके बाद मैंने कलिका के शरीर को एम्बुलेंस में लदवाया और ख़ुद भी उसके साथ बैठकर हैलीपैड की ओर चल पड़ा। डॉक्टर भी मेरे साथ ही था। वो बीच बीच में उसकी नब्ज़ देख लेता था।
हैलीपैड वहाँ से चालीस किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ शहर में था। पहाड़ों में ये दूरी तय करने में डेढ़ से दो घंटे लगते हैं लेकिन हमें सवा घंटे लगे। हैलीकॉप्टर हम लोगों से पाँच मिनट पहले ही वहाँ पहुँचा था। वहाँ से मैं और डॉक्टर कलिका को लेकर दिल्ली की तरफ उड़ गये।
(९)
कलिका के सर का ऑपरेशन दो घंटे चला। सर्जन ने बाहर निकलकर कहा, “आप लोगों को थोड़ी देर हो गई लेकिन इतनी ज़्यादा भी नहीं हुई कि हम कलिका को बचा न पाते। दिमाग में हो रहे खून के रिसाव से उसके दिमाग पर काफ़ी दबाव पड़ा और दिमाग के कई ऊतक क्षतिग्रस्त हो गए। लेकिन हमने उसकी खोपड़ी का एक हिस्सा काटकर निकाल दिया जिससे दिमाग पर पड़ रहा दबाव ख़त्म हो गया। कुछ दिन बाद जब उसके दिमाग़ में लगे घाव भर जाएँगें तो हम वो हिस्सा वापस लगा देंगे। फ़िलहाल तो वो कोमा में है और जब उसे होश आएगा तभी ठीक से कुछ बताया जा सकेगा कि दिमाग को कितना नुकसान हुआ है।”
जब तक कलिका का ऑपरेशन चल रहा था तब तक मुझे लग रहा था कि डॉक्टर बाहर निकलकर मुझसे कहेगा कि अब सबकुछ ठीक है आप कुछ दिनों बाद इन्हें घर ले जा सकते हैं। यह सोचकर मैंने अब तक कलिका के पिता को फोन नहीं किया था कि सबकुछ ठीक होने के बाद ही उन्हें बताऊँगा। अब मुझमें उन्हें यह बात बताने की हिम्मत नहीं थी। अपनी इस बेटी पर उन्हें बहुत नाज़ था। वो कहते थे कि मेरी ये बेटी बेटे से बढ़कर है। मैं उनसे कैसे कहता कि आपकी बेटी कोमा में है और होश में कब आएगी इस बात की कोई उम्मीद नहीं। दो दिन, दो हफ़्ते, दो साल या फिर कभी नहीं।
ये दिमाग भी बड़ी अजीब शै है। मज़बूत खोपड़ी से ढ़का हुआ लेकिन इतना मुलायम कि ख़ून का ज़रा सा दबाव बर्दाश्त नहीं कर सकता। ये मजबूत खोपड़ी जो इसकी रक्षा करती है भीतर से ख़ून रिसने लग जाय तो इसके लिए नुकसानदेह हो जाती है।
डॉक्टर बता रहा था कि दिमाग़ ख़ुद की मरम्मत भी कर लेता है। यादों तक पहुँचने का पुल टूट जाय तो धीरे धीरे नये पुल बना लेता है। विदेशों में कई मरीज़ तो ऐसे भी देखे गये हैं जो दिमाग के एक हिस्से के नष्ट होने के बाद भी अपना सामान्य जीवन बिता रहे हैं।
आख़िरकार मैंने कलिका के पिताजी को फोन लगाकर सारी बात बताई। वो उड़कर आए और फूट-फूट कर रोए। मैं क्या कहता? मैं क्या करता? बस देखता रहा। सबकुछ होते देखता रहा।
अगर मैं ईश्वर में विश्वास करता तो यह कहकर अपने आप को तसल्ली दे देता कि जो हुआ सब ऊपर वाले की मर्जी से हुआ। अगर मैं किस्मत में यकीन करता तो यह कहकर ख़ुद को समझा लेता कि इसकी किस्मत में यही लिखा था। अगर मैं स्वर्ग-नर्क या आत्मा में यकीन करता तो आत्महत्या कर लेता ताकि अपने इस जघन्य कृत्य के बदले मुझे हमेशा हमेशा के लिए नर्क मिल जाय। अगर मुझे मेरे देश की न्याय प्रक्रिया में यकीन होता तो मैं अपने आपको कानून के हवाले कर देता। लेकिन मुझे पता था कि कानून के पास जाने पर वो मुझे सजा दे देगा और इस तरह मेरी और इसकी दोनों की जिन्दगी बर्बाद कर देगा। कानून सज़ा देने से ज़्यादा और कर भी क्या सकता है। आँख के बदले आँख निकाल लेना न्याय नहीं होता। जिसने आँख निकाली उसके खर्चे पर जिसकी आँख निकाली गई उसे नई आँख देना शायद न्याय के ज़्यादा करीब होगा। आँख के बदले आँख निकालना या जेल भेजना तो बदला लेना है और बदला लेना न्याय कब से हो गया। मैं इसे दुर्घटना मानकर भी अपने को क्षमा कर सकता था लेकिन मुझे पता है कि दुर्घटना होने की संभावना सुरक्षा उपकरणों से और सावधान रहकर बहुत कम की जा सकती है। मैं स्वयं से यह भी नहीं कह सकता कि वो रेलिंग पकड़े बिना उतरेगी यह बात मेरे दिमाग़ में नहीं आई थी क्योंकि मैंने सिगमंड फ़्रायड को पढ़ा है और उनकी ये बात बिल्कुल सही है कि वही बात आपके दिमाग़ में नहीं आती जिसे आप भूल जाना चाहते हैं। अगर मैं कलिका से इतनी नफ़रत न करता तो ये हो ही नहीं सकता था कि ये बात मेरे दिमाग में न आती। मेरी नफ़रत ने मेरे दिमाग को मज़बूर कर दिया इस पर बात पर ध्यान न देने के लिए। अब तो जो कुछ करना होगा मुझे ख़ुद ही करना होगा।
(१०)
मैंने कार्यालय से एक महीने की छुट्टी ले ली। सुबह से शाम, शाम से रात, रात से सुबह बस इंतज़ार, इंतज़ार और इंतज़ार। ऑपरेशन के दौरान ही कलिका को पूरी तरह गंजा कर दिया गया था। दो हफ़्ते बाद जब डॉक्टरों को लगा कि उसके मस्तिष्क में लगा घाव भर चुका है और मस्तिष्क की सूजन खत्म हो चुकी है तब उन्होंने कलिका की खोपड़ी के काटे गये हिस्से को वापस जोड़ दिया। अब हम सबको इन्ज़ार था दिमाग़ के चमत्कार का।
पूरे एक महीने बाद जब हम सबकी उम्मीदें धुँधली हो चुकी थीं। इस ब्रह्मांड की सबसे जटिल संरचना ने अपनी करामात दिखाई। कलिका को होश आ गया। लेकिन वो बहुत कुछ भूल गई थी। उसकी पुरानी यादों तक जाने के लिए दिमाग ने जो पुल बना रखे थे उनमें से अधिकांश टूट चुके थे। जिस दिन मैंने उससे कहा था कि लड़कियों के दिमाग का आयतन लड़कों के दिमाग से कम होता है ठीक उस दिन तक की सारी बात भूल चुकी थी। उसे इतना ही याद था कि मैं उसका दोस्त था और हम दोनों में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी रहती थी। उसके मन में मेरे लिए कड़वाहट उस दिन से पहले पैदा नहीं हुई थी।
मेरे बारे में भूलने के साथ साथ वो अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई लिखाई भी भूल चुकी थी। इसके अलावा उसके बाएँ हाथ-पाँव भी काम नहीं कर रहे थे। उसकी तात्कालिक स्मरण शक्ति पर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा था। शुरू मे तो वो लड़खड़ा लड़खड़ा कर बोलती थी लेकिन कुछ दिनों बाद वो साफ़ साफ़ बोलने लगी। उसकी बहन उसे पकड़कर बाथरूम तक ले जाती थी और वापस लाती थी। मैं दिन भर बैठा उससे बातें करता रहता था। जब मैं उसे बताता था कि कैसे उसने इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा पास की और इंजीनियरिंग में अपने क्लास की टॉपर रही तो उसकी आँखों में आँसू आ जाते थे। दर’असल डॉक्टर ने मुझे कहा था कि इन्हें वो सारी पुरानी बातें बताइये जो ये भूल चुकी हैं इससे इनके दिमाग को पुरानी यादों तक नए पुल बनाने में आसानी होगी। ये समझ लीजिए कि आप जो बताएँगे वो उस पुल के लिए सीमेंट और रेत का काम करेगा। उसमें पानी इनका दिमाग़ ख़ुद मिला लेगा और पुरानी यादों तक पहुंचने के लिए नया पुल बना लेगा।
अब मैं उसे कैसे बताता कि हम दोनों एक दूसरे से नफ़रत करते थे। बेपनाह नफ़रत। वो सीमेंट और रेत जो उसके दिमाग को चाहिए था उसमें ये नफ़रत भी एक अवयव थी जो मैंने उसमें से निकाल ली थी। उसका दिमाग पुल बनाने का प्रयास करता था जो कभी कभी उसकी आँखों में उभरी चमक से मैं महसूस कर लेता था। लेकिन नफ़रत के अभाव में वो पुल बार बार टूट जाता था। एक दिन उसने कहा कि वो आगे पढ़ना चाहती है। पर अब इंजीनियरिंग करने की उसकी उम्र निकल चुकी थी। यदि वो फिर से आगे पढ़ना चाहती भी तो तात्कालिक स्मरण शक्ति कमज़ोर होने से ज़्यादा से ज़्यादा एक औसत दर्ज़े की विद्यार्थी बनकर रह जाती। मैं उसके गंजे सर और लकवाग्रस्त शरीर को देखता और सोचता कि ये मर गई होती तो अच्छा होता। लेकिन इसके न मरने की कामना भी तो मैंने ही की थी बस मुझे ये नहीं पता था कि याददाश्त खोकर ये उस नफ़रत और उससे जुड़े हुए दर्द को भूल जाएगी और मैं अकेला रह जाऊँगा उस नफ़रत का बेपनाह दर्द भुगतने के लिए।
(११)
धीरे धीरे मेरी एक महीने की छुट्टी ख़त्म होने को आ गई। मैंने डॉक्टर से बात की तो उसने कहा “एक दो दिन बाद आप इन्हें घर ले जा सकते हैं। इन्हें पुरानी बातें याद दिलाने की कोशिश करते रहिए। धीरे धीरे इनकी याददाश्त भी वापस आ जाएगी और इनकी बायीं तरफ़ के अंग भी काम करने लग जाएँगें।”
मैं बोला, “कितने दिनों में ऐसा होगा, डॉक्टर साहब।”
डॉक्टर बोला, “दिनों में? ऐसा होने में कम से कम पाँच-छः साल लगेंगे। इससे ज़्यादा भी लग सकते हैं।”
मैंने जाकर कलिका के पिता को बताया। वो रोने लगे। बोले, “हे भगवान, तूने मेरी बेटी की जिन्दगी बर्बाद कर दी। इससे तो अच्छा तूने उसे मौत ही दे दी होती।”
वो बोलते रहे, मैं सुनता रहा। वो रोते रहे, मैं टूटता रहा। वो चुप हुए तो मैंने एक निर्णय लिया। बड़ा ही अजीबोगरीब निर्णय। मैं कलिका के पास गया। उसकी बहन उससे बात कर रही थी। मैंने उसे थोड़ी देर के लिए बाहर जाने को कहा। वो चली गई तो मैं कलिका से बोला, “कलिका, तुम्हारी तबीयत ख़राब थी इसलिए मैंने तुम्हें एक बात नहीं बताई।”
वो बोली, “कौन सी बात?”
मैं बोला, “सच तो ये है कि मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और तुम भी मुझसे बहुत प्यार करती हो। हम दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया था और घरवालों को बताने ही वाले थे कि ये दुर्घटना घट गई। मैं तुम्हें अब भी उतना ही प्यार करता हूँ। क्या तुम्हें सचमुच कुछ भी याद नहीं।”
वो बोली, “प्यार-व्यार तो मैं नहीं जानती लेकिन इतना जानती हूँ कि तुम मुझे बचपन से अच्छे लगते थे इसलिए मैं तुमसे प्यार कर बैठी होऊँ तो कोई बड़ी बात नहीं।”
मेरे दिमाग को झटका लगा। ये बचपन से मेरे प्रति आकर्षित थी और मैं बचपन से ही इससे नफ़रत करता था। मैं तो समझता था कि ये भी मुझसे उतनी ही नफ़रत करती होगी जितनी मैं इससे। बहरहाल मेरी मुश्किल आसान हो गई थी। उससे बात करने के बाद मैं सीधा उसके पिता के पास गया और बोला, “अंकल आप को पता नहीं है कि मैं और कलिका बचपन से ही एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं। हम लोग शादी करने के लिए आपसे और पिताजी से बात करने ही वाले थे कि ये दुर्घटना हो गयी। अब कलिका स्वस्थ हो गई है तो मैं चाहता हूँ कि हम दोनों का विवाह जल्द से जल्द हो जाय। मेरे साथ रहने से उसकी याददाश्त भी ज़ल्द वापस आ जाने की संभावना बढ़ जाएगी।”
उसके बाद वही हुआ जो मैंने चाहा। कलिका की मुझसे शादी हो गई। उसके ठीक होने तक देखभाल करने के लिए उसकी माँ भी आकर मेरे साथ ही रहने लगी। हर महीने घर से कोई न कोई आने लगा। कलिका की तात्कालिक स्मरण शक्ति कुछ महीनों में ठीक हो गई और साल भर बीतते बीतते उसके लकवाग्रस्त अंगों में भी काफ़ी सुधार हो गया। अब वो अपने आप चलने फिरने लगी थी। धीरे धीरे उसने घर का सारा काम काज सँभाल लिया। उसकी माँ बहुत खुश थी कि उसकी बेटी की गृहस्थी बस गई। फिर एक दिन उसकी माँ भी वापस चली गई।
(१२)
सब खुश थे। कलिका के घरवाले, मेरे घरवाले, कलिका, सब खुश थे। सिर्फ़ मैं खुश नहीं था। मुझे पता था कि जब तक मैं कलिका को सब सच सच नहीं बता देता उसकी याददाश्त वापस आने की संभावना नगण्य है। अब तक मैं उम्मीद लगाये हुए था कि शायद उसकी याददाश्त बिना मेरे कुछ बताए ही वापस आ जाए। लेकिन समय बीतने के साथ साथ मेरी ये उम्मीद भी धुँधली पड़ती जा रही थी। कभी कभी मैं सोचता कि जैसे सबकुछ चल रहा है चलने दूँ लेकिन मेरा दिमाग़ इसके लिए राज़ी नहीं होता था। वो बार बार कहता था कि एक बेहद ख़ूबसूरत और तेज़ दिमाग को इस तरह अपने फ़ायदे के लिए कैद करके रखने का मुझे कोई हक नहीं है। ये दिमाग़ भी न, जब अड़ जाता है तो इतना परेशान कर देता है कि इसकी बात माननी ही पड़ती है। आखिरकार एक दिन मैंने कलिका को सबकुछ बताने का निर्णय ले लिया।
मैं बोलता जा रहा था और वो चुपचाप सब सुनती जा रही थी। उसके चेहरे पर अजीबोगरीब भाव आ जा रहे थे। यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई कि वो सरिया मैंने मोड़ा था जिससे उलझकर वो गिरी थी। जब रामकहानी ख़त्म हुई तो वो एक झटके से उठी और दूसरे झटके से जमीन पर गिर पड़ी। बो बेहोश हो गई थी।
जब उसे होश आया तो अपने साथ उसकी स्मृति को भी वापस ले आया। उसका दिमाग टूटे हुए पुल बना चुका था और अब उसे दुर्घटना होने तक की सारी बातें याद थीं। लेकिन दुर्घटना के बाद से लेकर अब तक की सारी बातें वो भूल चुकी थी। वो भूल चुकी थी कि वो मेरी पत्नी है। उसके कोमा में रहने के दौरान दिमाग पर लगी चोटों के बारे में जो कुछ पढ़ा था उससे मैंने पहले से ही ये अनुमान लगा लिया था कि भविष्य में ऐसा ही कुछ होने वाला है। वैसे भी मेरा उद्देश्य उसे कैद करके रखना कभी नहीं था। मैंने जो कुछ भी किया था सिर्फ़ इसलिए किया था कि मैं उसे फिर से पहले जैसी बना सकूँ। उसे उसकी खोई हुई ज़िन्दगी वापस दे सकूँ।
मैंने उसके पिता को फोन किया। उनको बता दिया कि कलिका को सारी पुरानी बातें याद आ गई हैं मगर वो दुर्घटना के बाद की सारी बातें भूल चुकी है। मैंने उन्हें चेतावनी भी दी कि कलिका को दुर्घटना के बाद की बातें याद दिलाने की कोशिश न की जाय वरना हो सकता है कि उसकी याददाश्त फिर से चली जाय। उनको ज़ल्द से ज़ल्द आने के लिए कहकर मैंने कलिका की कम्पनी के परियोजना निदेशक से बात की। उन्होंने कहा कि वो कलिका का दुबारा साक्षात्कार लेने के लिए तैयार हैं और इस बार वो उसे अपने दिल्ली स्थित कार्यालय में ही रखेंगे। कलिका का साक्षात्कार तो महज़ औपचारिकता भर था। कलिका के परियोजना निदेशक उसकी कर्मठता और बुद्धिमत्ता से परिचित थे ऊपर से उन्हें यह बात भी पता थी कि वो मेरी बात न मानने की स्थिति में नहीं हैं।
कलिका के पिताजी ने मेरी बात नहीं मानी। उन्होंने कलिका को सब बता दिया। उन्हें हमारे बीच की नफ़रत के बारे में कुछ भी नहीं पता था। कलिका पर इसका उल्टा असर हुआ। वो केवल वही बातें जान पाई जो उसके पिताजी जानते थे। उसे लगा कि मैंने उसकी याददाश्त जाने का फ़ायदा उठाकर उसके साथ शादी की। मैं जो नहीं चाहता था वही सब हो रहा था। उसने अपने पिताजी को कह दिया कि ऐसे विवाह का कोई मतलब नहीं जो उसे याद ही नहीं है। उसके पिताजी ने मुझसे कहा कि मैं उसे समझाऊँ। मैं क्या समझाता? मेरे समझाने से वो और चिढ़ती, मुझे और बुरा समझती।
आजकल वो दिल्ली में है। सुबह दफ़्तर जाती है तो शाम को देर से घर आती है। उसकी माँ उसकी देखभाल के लिए उसके साथ ही रहती है। कलिका को साल की सबसे अच्छी कर्मचारी होने का पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। मैं भी सुबह से शाम तक यही करता हूँ। हम दोनों इंसान से मशीन बन गये हैं। दिन-ब-दिन अपनी कम्पनी में और ज़्यादा महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। शायद एक दिन हम अपनी अपनी कंपनी के प्रबंध निदेशक भी बन जाएँ।
स्वप्न में हुए एक सुंदर प्रणय को उचक कर छू लेना चाहता हूँ
लेकिन चंपा मेरी उचक से परे खिलती है
मैं उसकी छांव में बैठा उसके झरने की प्रतीक्षा करता हूँ
- गीत चतुर्वेदी
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी, आपकी टिप्पणी पर देर से प्रतिक्रिया देने के लिए क्षमा चाहता हूँ। आपकी शंकाओं और सुझावों के लिए आपका आभारी हूँ। आपकी बेबाक राय की मुझे सदा प्रतीक्षा रहती है। कथा आपको पसंद आई इसलिए तह-ए-दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ। मेरा प्रयास था कि समाज में व्याप्त इस ‘गला काट प्रतियोगिता’ की बुराइयों को लोगों के सामने रख सकूँ और ये दिखा सकूँ कि ये प्रतियोगिता दो कोमल हृदय लोगों को भी अंततः रोबोट मे बदल सकती है। स्नेह यूँ ही बना रहे।
पुनश्च : इस कहानी के पात्र सुरेश और कलिका हैं। :) ‘गीत चतुर्वेदी’ की कविता की पंक्तियाँ मैंने कोट की हैं क्योंकि वो मुझे इस कहानी के काफ़ी करीब लगती हैं। आपको यदि समय मिले तो गीत चतुर्वेदी की कविताएँ जरूर पढ़िएगा। उनका ब्लॉग वैतागवाड़ी नाम से है।
आदरणीय धर्मेन्द्रजी,
मैं आपकी किस्सागोई पर क्या कहूँ, बस यही जान लीजिये कि कथा समाप्त हुए डेढ़ घण्टे हो चुके हैं. और कुछ कहने लायक मैं अब हो पाया हूँ. मेरा मन तब से स्कूल, स्कूल से कॉलेज, कॉलेज से ’साइट’ पर चक्करघिन्नी बना हुआ था. ’कलिका’ और ’गीत के मैं’ के बीच संवेदना की कोमलता और क्लिष्टता की गुत्थियों को समझने में उलझा रहा. बाल मनोविज्ञान की ’सरल जटिलता’ जहाँ मोह गयी, वहीं पारिस्थिक प्रतियोगिता सहज लगी. लेकिन जिस तरह से दुर्घटना और इसके बाद के पहलुओं को उभारा गया है वह आपके कुशल वैन्यासिक होने का स्पष्ट प्रमाण है.
इस कथा में आपकी मेहनत स्पष्ट दिखती है. अलबत्ता कुछ वैज्ञानिक शब्दों का हिन्दीकरण कृत्रिम लगा. इस विन्दु पर हो सकता है मैं तनिक असहज होऊँ. क्यों कि ’सेल’ का हिन्दी पर्याय ’ऊतक’ ही होता है. लेकिन जिस प्रवाह में यह कथा बढ़ती जाती है वहाँ यह ’ऊतक’ जाने क्यों मुझे सैद्धांतिक अधिक लगा. लेकिन यह तो हुई किसी एक पाठक की बात, जबकि मैं स्वयं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ. हो सकता है, पाठकीय सोच का समुच्चय मुझे गलत साबित कर दे. ऐसा हुआ तो अच्छा ही होगा !
इस कथा का इस मंच पर होना इस मंच का मान है. ऐसी कथाओं से कोई मंच निश्श्चय ही समृद्ध होता है.
’गीत चतुर्वेदी’ की सोच और उसके बाल मन की उपज ’नफ़रत’ को बहुत गहराई से महसूस किया मैंने और ऐसा आपके कारण हुआ. इसके लिए दिल से आभारी हूँ.
इस सप्रवाही कथा को आगे उपयुक्त सम्मान मिले, इस हेतु आप अवश्य प्रयास करेंगे.
इस आशा के साथ हार्दिक शुभकामनाएँ.
आदरणीय धर्मेन्द्र जी,
सुन्दर कथा. बस इतना भर कह दू तो शायद कथा के साथ नाइसाफ़ी होगी.
कथा के प्रवाह् को आपने बना कर रखा है. कहीं भी एसा नहीं लगा कि ये प्रसंग अचानक है, प्रेम कथा में एक इजीनियर अगर कथाकार है तो मशीनों के बारे में जरुर बतायेगा और ये आपने भी किया है. मशीनों और डैम पर के काम के विभिन्न शब्दावलियों से परिचय कराया है. सर पर चोट लगने के बाद के मेमोरी लास के एक पेशेन्ट को व्यक्तिगत रुप से जानता था. पति ने वो सारी बाते की जो यहां कहीं गयी हैं. पर अफ़सोस आज दोनो नहीं हैं
सादर.
आदरणीय धर्मेन्द्र जी
इतनी बड़ी कहानी देखकर पहले तो मैंने पढ़ने का मन नहीं बनाया , फिर टेस्ट के तौर पर शुरू किया तो अंत तक एक ही टेक में पढ़ गया कहानी आत्मकथात्मक शैली में है और गहरे तक असर करती है कहानी का ट्रीटमेंट भी बहुत अच्छा है i आपको बधायी . सादर.
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