" पापा , आपने अगर मुझे बेटी माना है तो मुझे इस अधिकार से कभी वंचित मत कीजियेगा ", विदा होते समय वो उनसे लिपट कर रो पड़ी थी और वहाँ मौज़ूद लोगों की आँखें नम हो गयी थीं ।
वो अपने एकलौते पुत्र को खो बैठे थे जिसकी नयी नयी शादी हुई थी , और हर उस आवाज़ के सामने चट्टान बन कर खड़े हो गए थे जो उनकी बहू को इस हादसे के लिए दोषी ठहरा रहे थे । फिर उन्होंने बहू को धीरे धीरे सँभाला और उसे अपनी बेटी का दर्ज़ा दे दिया । उसके अपने माता पिता भी संतुष्ट थे कि वो अब उस घर की बेटी बन गयी थी ।
आजीवन उनका ध्यान रखने के बाद उनकी अर्थी को अपना कन्धा देकर वो बेटे का फ़र्ज़ भी निभा गयी ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आप की टिप्पणी सर माथे पर आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी | शायद कुछ कमी रह गयी इसमें , बहुत बहुत आभार इंगित करने के लिए.
इस लघुकथा के माध्यम से एक अत्य़ंत संवेदनशील विषय को उठाया गया है.
लेकिन आदरणीय, आपका ’टच’ मिलने से रह गया है. यह लघुकथा तनिक और ट्रीटमेण्ट चाहती थी.
आपकी लघुकथाओं से यदि हमारी अपेक्षाएँ बढ़ गयी हैं, तो इसके ’दोषी’ आप ही हैं.
हार्दिक शुभेच्छाएँ.
बहुत बहुत आभार आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी..
सुंदर मर्मस्पर्शी लघुकथा ,आदरणीय विनय जी. बहुत-बहुत बधाई आपको
बहुत बहुत आभार आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी | शुक्रिया आपके विचार रखने का , आगे प्रयास रहेगा |
बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी..
प्रस्तुति का कथ्य बहुत मार्मिक है आ० विनय कुमार सिंह जी.... पर अंतिम पंक्ति तक पहुँचते पहुँचते ये एक घटना का विवरण सा प्रतीत होती है, लघु कथा के मानक तत्वों के सापेक्ष इसे अभी कुछ और कसावट चाहिए
प्रयास के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं
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