भूकम्प....
यादों के शहर में
मुॅह बिचकाती सड़कें
दरक कर उलाहना देतीं ....दीवारें खिसियाती
जमीं पर भटकते अबोध सितारे
औंधें मुॅह धूल चाटतीं ऐतिहासिक धरोहरें
झुके वृक्ष कुछ और झुक कर पूछना चाहते....कैसे हो?
भूकम्प के झटकों से टेढ़ा हुआ चॉद
चॉदनी धू-धूसरित....
मलबे के नीचे दबे विदीर्ण स्वर अतिशांत
प्रकृति भी सहम उठती।
अडिग अट्टालिकाएं चकनाचूर
बिछड़े आँखों के नूर
भाग्य स्वयं को कोसते.....तो, संवेदनाएं मूक।
मैदानों में लहराते दु:ख के सागर
सिसकतीं सींप, तड़फतीं मछलियां
छायाएं अपनी ही परछाईयों से डर कर सिमटी
दर्पण स्वयं के अक्स को खोजता
मिलता, पॉच मीटर पन्नी, एक लीटर पानी, कुछ बि-िस्कट और
एक फटकार.....दूसरे भी है?
नवीन भवनों के चिकने गालों पर भी
डर की झुर्रियां साफ झलकतीं
बदहवास इंसान स्वयं पर खीजता
बचाव दल...अवशेषों को उलटते-पलटते
सावधानी पूर्वक प्राण फूंकते
बचा लेते कई चोटिल, पंगु, बेहोश जानें और-
कुछ को पन्नियों से ढक देते,
असहज होकर..
सिर लटकतें ही आकाश रो पड़ता
भीगता धरती का आँचल
अपरिचितों के साथ बहती अपनों की मिट्टी
थम जाती सांसें।
गंधीले भाव समय की मुट्ठी से फिसल कर
बिखेरते जाफरानी खुशबू
तार-तार झंकृत करते ढाई आखर प्रेम
बर्फ की कठोरता नित्य सॅवारते.....एक नया भविष्य!
प्रकृति अनुसरण से मुक्त
नियति प्रतिवाद नहीं......जीवन का बोध कराती
अनुसरण,
इन्सानों का धर्म है।
के0पी0 सत्यम / मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 श्याम नारायण भाई जी, प्रणाम! कविता को पसंद करने व उत्साह बढाने हेतु आपका हार्दिक आभार, सादर
आ0 सुनील भाई जी, प्रणाम! कविता को पसंद करने व उत्साह बढाने हेतु आपका हार्दिक आभार, सादर
आ0 गोपाल भाई जी, प्रणाम! कविता पर आपके स्नेह व उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार, सादर
बहुत ही सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति .. बधाई सादर |
बहुत बढ़िया . क्या बात है . बधाई सत्यम जी .
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